CBSE Class 12 Hindi परियोजना

परियोजना कार्य-1

कोई युवा पुरुष अपने घर से बाहर निकलकर बाहरी संसार में अपनी स्थिति जमाता है, तब पहली कठिनता उसे मित्र चुनने में पड़ती है। यदि उसकी स्थिति बिलकुल एकांत और निराली नहीं रहती तो उसकी जान-पहचान के लोग धड़ाधड़ बढ़ते जाते हैं और थोड़े ही दिनों में कुछ लोगों से उसका हेल-मेल हो जाता है। यही हेल-मेल बढ़ते-बढ़ते मित्रता के रूप में परिणत हो जाता है। मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर उसके जीवन की सफलता निर्भर हो जाती है, क्योंकि संगति का गुप्त प्रभाव हमारे आचरण पर बड़ा भारी होता है।

हम लोग ऐसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरंभ करते हैं, जबकि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने के लिए रहता है। हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं, जिसे जो जिस रूप में चाहे, उस रूप में ढाले-चाहे राक्षस बनाए, चाहे देवता। ऐसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है, जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं, क्योंकि हमें उनकी हर बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है।

पर ऐसे लोगों का साथ करना और भी बुरा है, जो हमारी ही बात को ऊपर रखते हैं, क्योंकि ऐसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई नियंत्रण रहता है और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है। दोनों अवस्थाओं में जिस बात का भय रहता है, उसका पता युवकों को प्रायः बहुत कम रहता है। यदि विवेक से काम लिया जाए तो यह भय नहीं रहता, पर युवा पुरुष प्रायः विवेक से कम काम लेते हैं। कैसे आश्चर्य की बात है कि लोग एक घोड़ा लेते हैं तो उसके सौ गुण-दोष को परख कर लेते हैं, पर किसी को मित्र बनाने में उसके पूर्व आचरण और स्वभाव आदि का कुछ भी विचार और अनुसंधान नहीं करते।

वे उसमें सब बातें अच्छी-ही-अच्छी मानकर अपना पूरा विश्वास जमा देते हैं। हँसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई या साहस – ये ही दो-चार बात किसी में देखकर लोग चटपट उसे अपना बना लेते हैं। हम लोग यह नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या है, क्या जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है। यह बात हमें नहीं सूझती कि यह ऐसा साधन है, जिससे आत्मशिक्षा का कार्य बहुत सुगम हो जाता है। एक प्राचीन विद्वान का वचन है, “विश्वासपात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा रहती है।

जिसे ऐसा मित्र मिल जाए उसे समझना चाहिए कि खज़ाना मिल गया।” विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषध है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों से हमें दृढ़ करेंगे, दोषों और त्रुटियों से हमें बचाएँगे, हमारे सत्य, पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करेंगे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे, तब हमें उत्साहित करेंगे। सारांश यह है हमें उत्तमतापूर्वक जीवन-निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे।

सच्ची मित्रता में उत्तम वैद्य की-सी निपुणता और परख होती है, अच्छी-से-अच्छी माता का-सा धैर्य और कोमलता होती है। ऐसी ही सहायता करने का प्रयत्न प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए। छात्रावस्था में मित्रता की धुन सवार रहती है। मित्रता हृदय से उमड़ी रहती है। पीछे के जो स्नेह-बंधन होते हैं, उनमें न तो उतनी उमंग रहती है न उतनी खिन्नता। बाल-मैत्री में जो मग्न करनेवाला आनंद होता है, वह और कहाँ? कैसी मधुरता और कैसी अनुरक्ति होती है, कैसा अपार संवास होता है!

हृदय से कैसे-कैसे उद्गार निकलते हैं! भविष्य के संबंध में कैसी लुभानेवाली कल्पनाएँ मन में रहती हैं। कितनी बातें लगती हैं और कितनी जल्दी मानना है। ‘सहपाठी की मित्रता’ इस उक्ति में हृदय के कितने भारी उथल-पुथल का भाव भरा हुआ है। किंतु जिस प्रकार युवा पुरुष की मित्रता स्कूल के एक की मित्रता से दृढ, शांत और गंभीर होती है, उसी प्रकार हमारी अवस्था के मित्र बाल्यावस्था के मित्रों से कई बातों में भिन्न होते हैं। मैं जानता हूँ कि मित्र चाहते हुए बहुत-से लोग मित्र के आदर्श की कल्पना करते होंगे।

पर इस कल्पित आदर्श से तो हमारा काम जीवन में चलता नहीं। सुंदर प्रतिभा, मनभावनी चाल और स्वच्छंद प्रकृति, दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है, पर जीवन-संग्राम में साथ चले मित्रों में इनसे कुछ अधिक बातें चाहिए। मित्र केवल उसे नहीं कहो, जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करें, पर जिससे हम स्नेह न कर सकें, जिससे अपने छोटे-छोटे काम ही हम निकालते जाएँ, पर भीतर-ही-भीतर घृणा करते रहें। मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होना चाहिए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सकें।

मित्र भाई के समान होना चाहिए, जिसे हम अपना प्रीति-पात्र बना सकें। हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए। ऐसी सहानुभूति जिससे एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि-लाभ समझे।। मित्र का कर्तव्य इस प्रकार बताया गया है, “उच्च और महान कार्यों में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी-अपनी सामर्थ्य से बाहर काम कर जाओ।” यह कर्तव्य उसी से पूरा होगा, जो दृढ़ चित्त और सत्य-संकल्प का हो।

इससे हमें ऐसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए जिनमें हमसे अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए, जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था। मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के हों, मृदुल और पुरुषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सकें और यह विश्वास कर सकें कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा। जो बात ऊपर मित्रों के संबंध में कही गई है, वही जान-पहचानवालों के संबंध में भी ठीक है।

जो हमारे जीवन को उत्तम और आनंदमय बनाने में कुछ सहायता दे सकते हों, यद्यपि उतनी नहीं जितनी गहरे मित्र दे सकते हैं। मनुष्य का जीवन थोडा है, उसमें खोने के लिए समय नहीं। यदि क, ख और ग हमारे लिए कुछ नहीं कर सकते हैं, न कोई बुद्धिमानी या विनोद की बातचीत कर सकते हैं, न कोई अच्छी बात बतला सकते हैं, न सहानुभूति द्वारा हमें ढाढ़स बँधा सकते हैं, न हमारे आनंद में सम्मिलित हो सकते हैं, न हमें कर्तव्य का ध्यान दिला सकते हैं, तो ईश्वर हमें उनसे दूर ही रखे।

आजकल जान-पहचान बढाना कोई बड़ी बात नहीं है। कोई भी युवा पुरुष ऐसे अनेक युवा पुरुषों को पा सकता है, जो उसके साथ थियेटर चले जाएँगे, नाचरंग में जाएँगे, सैर-सपाटे में जाएँगे, भोजन का निमंत्रण स्वीकार करेंगे। यदि ऐसे जान-पहचान के लोगों से कुछ हानि न होगी, तो लाभ भी न होगा। पर यदि हानि होगी तो बड़ी भारी होगी। कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है।

किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-रात अवनति के गड्ढे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरंतर प्रगति की ओर उठाती जाएगी। इंग्लैंड के एक विद्वान को युवावस्था में राज-दरबारियों में जगह नहीं मिली। इस पर जिंदगी भर वह अपने भाग्य को सराहता रहा। बहुत-से लोग इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होते।

बहुत-से लोग ऐसे होते हैं, जिनके घड़ी भर के साथ से सद्बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, क्योंकि उनके ही बीच में ऐसी-ऐसी बातें कही जाती हैं जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऐसे प्रभाव पड़ते हैं, जिससे उसकी पवित्रता का नाश होती है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती हैं। इस बात को प्रायः सभी लोग जानते हैं कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान में चढ़ते हैं, उतनी जल्दी कोई गंभीर या अच्छी बात नहीं।

एक बार एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसने लड़कपन में कहीं से बुरी कहावत सुनी थी, जिसका ध्यान वह लाख चेष्टा करता है कि न आए, पर बार-बार आता है। जिन भावनाओं को हम दूर रखना चाहते हैं, जिन बातों को हम याद करना नहीं चाहते, वे बार-बार हृदय में उठती हैं और बेधती हैं। अतः तुम पूरी चौकसी रखो, ऐसे लोगों को साथी न बनाओ जो अश्लील, अपवित्र और फूहड़ बातों से तुम्हें हँसाना चाहें। सावधान रहो। ऐसा न हो कि पहले-पहल तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि एक बार ऐसा हुआ, फिर ऐसा न होगा।

अथवा तुम्हारे चरित्रबल का ऐसा प्रभाव पड़ेगा कि ऐसी बातें बकने वाले आगे चलकर स्वयं ही सुधर जाएँगे। नहीं, ऐसा नहीं होगा। जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है, तब फिर यह नहीं देखता कि वह कहाँ और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभ्यस्त होते-होते तुम्हारी घृणा कम हो जाएगी। पीछे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी, क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़ने की बात ही क्या है।

तुम्हारा विवेक कुंठित हो जाएगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान न रह जाएगी। अंत में होते-होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे। अतः हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगति की छूत से बचो। एक पुरानी कहावत है-
“काजल की कोठरी में कैसो ही सयानो जाय।
एक लीक काजल की लागि है पै लागि है।”

प्रश्नः 1.
बाहरी संसार में उतरने पर नौजवानों के समक्ष पहली कठिनाई क्या आती है?
उत्तरः
जब कोई नौजवान अपने घर से बाहर निकलकर बाहरी संसार में अपनी स्थिति जमाता है तो उसे पहली कठिनाई इस बात की आती है कि वह किसे अपना मित्र बनाए।

प्रश्नः 2.
आजकल कैसे लोगों के साथ सरलता से जान-पहचान हो जाती है?
उत्तरः
आजकल ऐसे लोगों के साथ सरलता से जान-पहचान हो जाती है जो साथ थियेटर देखने जाएँ, नाचरंग में जाएँ, सैर सपाटे में जाएँ, भोजन का निमंत्रण स्वीकार करें।

प्रश्नः 3.
हमसे अधिक दृढ़ संकल्प वाले लोगों का साथ हमारे लिए क्यों बुरा हो सकता है?
उत्तरः
जब हमारे साथ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प वाले होते हैं तो हमें उनकी हर बात बिना विरोध के माननी पड़ती है।

प्रश्नः 4.
छात्रावास और उसके बाद की मित्रता में क्या अंतर होता है?
उत्तरः
छात्रावास की मित्रता में उमंग और आनंद होता है, मधुरता और अनुरिक्त होती है। उसमें जल्दी रूठने और मान जाने प्रवृत्ति होती है। इसके विपरीत बाद की मित्रता में न उतनी उमंग होती है और न उतनी खिन्नता। युवा पुरुष की मित्रता स्कूल के बालक की मित्रता से दृढ़, शांत और गंभीर होती है।

प्रश्नः 5.
अपने से अधिक आत्मबल रखने वाले व्यक्ति को मित्र बनाने से क्या लाभ है?
उत्तरः
अपने से अधिक आत्मबल रखने वाले व्यक्ति को मित्र बनाने से यह लाभ है कि वह उच्च और महान कार्यों में इस प्रकार सहायता देगा कि तुम अपनी सामर्थ्य से बाहर काम कर जाओ।

प्रश्नः 6.
राजदरबार में जगह न मिलने पर इंग्लैंड का एक विद्वान अपने भाग्य को क्यों सराहता रहा?
उत्तरः
जब इंग्लैंड के एक विद्वान को राजदरबार में जगह नहीं मिली तो वह अपने भाग्य को सराहता रहा क्योंकि वह जानता था कि राजदरबार में उसे बुरे लोगों की संगति में पड़ना पड़ता, जिससे उसके आध्यात्मिक विकास में बाधा पड़ती।

प्रश्नः 7.
सच्ची मित्रता में वैद्य की-सी निपुणता और परख और माता का-सा धैर्य और कोमलता होती है-स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
एक निपुण वैद्य की पारखी दृष्टि से कोई भी रोग छिप नहीं पाता और वह उसका उचित उपचार करके रोगी को स्वस्थ कर देता है। अच्छा मित्र भी अपने मित्र की कमियों को बड़ी आसानी से परख लेता है और उन्हें दूर करने का प्रयास करता है। माता भी अपने बच्चे की भलाई का ध्यान रखती है और धैर्य एवं कोमलता के साथ वह बालक को सही मार्ग पर चलाती है। अच्छा मित्र भी वैसे ही करता है।

प्रश्नः 8.
मित्र का चुनाव करते समय हमें किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तरः
मित्र बनाते समय हमें निम्नलिखित सावधानियाँ रखनी चाहिए

  1. मित्र बनाते समय खूब सोच-विचार लेना चाहिए।
  2. सुंदर प्रतिभा, मनभावनी चाल और स्वच्छंद प्रकृति के लोगों को मित्र नहीं बनाना चाहिए।
  3. परस्पर सच्ची सहानुभूति प्रकट करने वालों को मित्र बनाना चाहिए।
  4. विश्वासपात्र होना चाहिए।
  5. हमें ऐसे मित्र कभी नहीं बनाने चाहिए जो हमारी झूठी प्रशंसा करता हो और मन से घृणा करता हो।
  6. हमें ऐसे मित्रों का परित्याग कर देना चाहिए जो हमें कुमार्ग की ओर ले जाएँ और हमारे दोषों को दूर न करें।
  7. सभी प्रकार के अवगुणों को छिपाने वाले और गुणों को प्रकट करने वाले को मित्र बनाना चाहिए।

परियोजना कार्य-2

आज से करीब डेढ हज़ार साल पहले पाटलिपुत्र नगर नंद, मौर्य और गुप्त सम्राटों की राजधानी था। दूर-दूर तक इस नगर की कीर्ति फैली हुई थी। राजधानी होने के कारण देशभर के प्रतिष्ठित पंडित यहाँ एकत्र होते थे। प्रख्यात नालंदा विश्वविद्यालय में दूसरे देशों के विद्यार्थी भी विशेष अध्ययन के लिए पहुँचते थे। उस समय पाटलिपुत्र नगर ज्योतिष के अध्ययन के लिए मशहूर था। एक दिन सवेरे से ही गंगा, सोन और गंडक नदियों के संगम की ओर लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। उस दिन अपराह्न में सूर्य को ग्रहण लगने वाला था।

लोगों में यह प्रचारित था कि “राहु नाम का राक्षस सूर्य को निगल जाता है, तब ग्रहण लगता है। ग्रहण के समय उपवास रखना चाहिए, खूब दान-पुण्य करना चाहिए। तभी इस राक्षस के चंगुल से सूर्य-देवता को जल्दी-से-जल्दी मुक्ति मिलती है।” मगर पाटलिपुत्र नगर से थोड़ी दूर के आश्रम में कुछ दूसरा ही माहौल था। टीले पर बसे उस आश्रम के लंबे-चौड़े आँगन में ताँबे, पीतल और लकड़ी के तरह-तरह के यंत्र रखे हुए थे। उनमें से कुछ यंत्र गोल थे, कुछ कटोरे-जैसे, कुछ वर्तुलाकार और कुछ शंकु की तरह के।

वस्तुतः वह एक वेधशाला थी। वहाँ के ज्योतिषियों ने हिसाब लगाकर पहले से ही भविष्यवाणी की थी कि ठीक किस समय ग्रहण लगेगा, कहाँ-कहाँ दिखाई देगा और कितने समय तक रहेगा। आज उन्हें देखना था कि उनका हिसाब ठीक निकलता है या नहीं। इसलिए सभी उत्सुकता से ग्रहण के क्षण का इंतज़ार कर रहे थे। मगर वहाँ पर एक तरुण विद्यार्थी जो अपने साथियों को समझा रहा था, “पृथ्वी की बड़ी छाया जब चंद्र पर पड़ती है, तो चंद्र ग्रहण होता है।

इसी प्रकार चंद्र जब पृथ्वी और सूर्य के बीच में आता है और वह सूर्य को ढक लेता है, तब सूर्य ग्रहण होता है। आज भी ऐसा ही होने वाला है, कोई राहु नाम का राक्षस सूर्य को निगल जाता है—यह कथन पुराण की कथा है।” ग्रहणों की वैज्ञानिक व्याख्या करने वाले उस तरुण पंडित का नाम था—आर्यभट। ‘भट’ का मतलब है-योद्धा। सचमुच आर्यभट अज्ञान के विरुद्ध ज्ञान का युद्ध जीवन भर लड़ते रहे। आर्यभट दक्षिणापथ में गोदावरी तट क्षेत्र के अश्मक जनपद में पैदा हुए थे। इसलिए बाद में वे आश्मकाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।

गणित एवं ज्योतिष के अध्ययन में उनकी गहरी रुचि थी। आर्यभट अपने विचार बेहिचक प्रस्तुत कर देते थे। ग्रहणों के बारे में ही नहीं, आकाश की दूसरी अनेक घटनाओं के बारे में भी उनके अपने स्वतंत्र विचार थे। उस ज़माने के लोग समझते थे कि हमारी पृथ्वी आकाश में स्थिर है और तारामंडल एवं सूर्य गतिशील। आर्यभट हमारे देश के पहले ज्योतिषी थे जिन्होंने साफ़ शब्दों में कहा है कि पृथ्वी स्थिर नहीं है। यह अपनी धुरी पर चक्कर लगाती है।

तो फिर आकाश के तारे हमें चक्कर लगाते क्यों दिखाई देते हैं? पृथ्वी के चक्कर लगाने का पता हमें क्यों नहीं चलता? आर्यभट का उत्तर था- “समझ लो कि नदी में एक नाव है और वह धारा के साथ तेजी से आगे बढ़ रही है। तब उसमें बैठा हुआ आदमी किनारे की स्थिर वस्तुओं को उलटी दिशा में जाता हुआ अनुभव करता है। उसी तरह आकाश के तारों की बात है। पृथ्वी अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती है और इसके साथ हम भी घूमते रहते हैं, इसलिए आकाश में स्थित तारामंडल हमें पूर्व से पश्चिम की ओर जाता जान पड़ता है।

वस्तुतः तारामंडल स्थिर है और पृथ्वी अपनी धुरी पर चक्कर लगाती है। कोई भी ज्योतिषी इस मत को मानने के लिए तैयार नहीं होता था। यही कारण था कि आर्यभट का मत सही होने पर भी आगे की सदियों तक हमारे देश के बड़े-बड़े ज्योतिषी भी यही मानते रहे कि पृथ्वी स्थिर है। वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त जैसे महान ज्योतिषी भी ऐसे ही थे। आर्यभट की पुस्तक का नाम है – आर्यभटीय। पुस्तक पद्य में है। भाषा संस्कृत है। प्राचीन भारत में गणित और ज्योतिष का अध्ययन साथ-साथ होता था, इसलिए इन दोनों विषयों का विवेचन प्रायः एक ही ग्रंथ में कर दिया जाता था।

पुस्तक के चार भाग हैं-दशगीतिका, गणित, कालक्रिया और गोल। आर्यभटीय में कुल 121 श्लोक हैं। प्रत्येक श्लोक में दो पंक्तियाँ हैं। उस समय तक भारत में गणित और ज्योतिष से संबंधित जितनी महत्त्वपूर्ण बातें खोजी गई थीं, उन सबको आर्यभट ने अत्यंत संक्षेप में अपनी पुस्तक में प्रस्तुत कर दिया है। पुराना ज्ञान ही नहीं, उन्होंने अपनी नई खोजी हुई बातें भी पुस्तक में रखी हैं। आर्यभटीय भारतीय गणित-ज्योतिष का पहला ग्रंथ है जिसमें इसके रचनाकार और रचनाकाल के बारे में स्पष्ट सूचना मिलती है।

ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में संसार को प्राचीन भारत की सबसे बड़ी देन है-शून्य सहित केवल दस अंक संकेतों से ही संख्याओं को व्यक्त करना। इस दाशमिक स्थानमान अंक-पद्धति की खोज आर्यभट से तीन-चार सदियों पहले हो चुकी थी। आर्यभट इस नई अंक पद्धति से परिचित थे। उन्होंने अपने ग्रंथ के आरंभ में वृंद (1000000000) अर्थात अरब तक ही दशगुणोत्तर संख्या-संज्ञाएँ देकर लिखा है कि इनमें प्रत्येक स्थान पिछले स्थान से दस गुणा है।

प्राचीन भारत में गणित-ज्योतिष के ग्रंथ भी पद्य में लिखे जाते थे, इसलिए उनमें ख (0), पृथ्वी (1), (2), ऋतु (6) जैसे शब्दों से संख्याओं को व्यक्त किया जाता था। इन शब्दांकों को उनके क्रम में लिखने का नियम था; जैसे खचतुष्ट-रदअर्णव (चार शून्यदाँत-सागर) का अर्थ होता था-4320000. आर्यभट अपने ग्रंथ को बहुत छोटा बनाना चाहते थे, वे अपने विचारों को कम-से-कम शब्दों में प्रस्तुत करना चाहते थे।

आर्यभट ने अक्षरों को संख्यामान प्रदान किए। जैसे-क् = 1, ख् = 2, ग् = 3 इत्यादि। अ, इ, उ आदि स्वरों को उन्होंने एक, सौ, दस हज़ार जैसे शतगुणोत्तर मान दिए। इस तरह उन्होंने व्यंजनों और स्वरों के मेलजोल से बड़ी से बड़ी संख्या को संक्षेप में लिखने का एक नया तरीका खोज निकाला। इस नई अक्षरांक पद्धति को अपनाकर आर्यभट बड़ी-बड़ी संख्याओं को छोटे-छोटे शब्दों में प्रस्तुत करने में समर्थ हुए, जैसे-उपर्युक्त संख्या

प्रश्नः 1.
पटना शहर के प्राचीन नाम क्या-क्या थे?
उत्तरः
पटना शहर को पहले पाटलिपुत्र कहा जाता था। यहाँ फूल बहुत अधिक होते थे, अतः इसका नाम कुसुमपुर भी था।

प्रश्नः 2.
प्राचीन काल में पाटलिपुत्र नगर की प्रसिद्धि के क्या कारण थे?
उत्तरः
प्राचीन काल में पाटलिपुत्र नगर नंद, मौर्य और गुप्त सम्राटों की राजधानी रहा था। वह बहुत बड़ा नगर था। राजधानी होने के कारण देशभर के प्रतिष्ठित पंडित यहाँ एकत्र होते थे। प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय भी पटना के समीप ही था।

प्रश्नः 3.
गंगा, सोन और गंडक नदियों के संगम पर लोग क्यों इकट्ठे हुए थे?
उत्तरः
उस दिन अपराहन में सूर्यग्रहण पड़ने वाला था। ग्रहण के अवसर पर नदियों के संगम और ऐसे ही स्थानों पर स्नान करने की मान्यता रही है। इसलिए लोग उन नदियों के संगम पर इकट्ठे हो रहे थे, ताकि ग्रहण के अवसर पर वे वहाँ स्नान कर सकें।

प्रश्नः 4.
लोगों में सूर्यग्रहण के बारे में क्या धारणा थी?
उत्तरः
लोगों में सूर्यग्रहण के बारे यह धारणा थी कि राहु नाम का राक्षस सूर्य को निगल जाता है, तब ग्रहण लगता है। ग्रहण के समय उपवास रखना चाहिए, खूब दान-पुण्य करना चाहिए, तभी इस राक्षस के चंगुल से सूर्य देवता को जल्दी-से-जल्दी मुक्ति मिलती है।

प्रश्नः 5.
पाटलिपुत्र नगर से दूर टीले पर स्थित आश्रम की क्या विशेषता थी?
उत्तरः
पाटलिपुत्र नगर से थोड़ी दूर टीले पर स्थित आश्रम में भी बड़ी चहल-पहल थी। लेकिन वह चहल-पहल कुछ दूसरे प्रकार की थी। यह आश्रम एक वेधशाला थी। टीले पर बसे उस आश्रम के लंबे-चौड़े आँगन में ताँबे, पीतल और लकड़ी के तरह-तरह के यंत्र रखे हुए थे। उनमें से कुछ यंत्र गोल थे, कुछ कटोरे जैसे, कुछ वर्तुलाकार और कुछ शंकु की तरह के थे। यहाँ ज्योतिष अपना अनुमान लगाते हैं।

प्रश्नः 6.
आश्रम की वेधशाला में ज्योतिषी और विद्यार्थी क्यों एकत्र हुए थे?
उत्तरः
आश्रम की वेधशाला में उस दिन यंत्रों के इर्द-गिर्द कई प्रसिद्ध ज्योतिषी और बहुत-से विद्यार्थी एकत्र हुए थे। वहाँ के ज्योतिषियों ने हिसाब लगाकर पहले ही भविष्यवाणी की थी कि ठीक किस समय ग्रहण लगेगा, कहाँ-कहाँ दिखाई देगा और कितने समय तक रहेगा। आज उन्हें देखना था कि उनका हिसाब ठीक निकलता है या नहीं। इसीलिए वहाँ ज्योतिषी और विद्यार्थी एकत्र हुए थे।

प्रश्नः 7.
आर्यभट ने सूर्य और चंद्रग्रहण की क्या वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की?
उत्तरः
आर्यभट ने अपनी वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहा, “पृथ्वी की बड़ी छाया जब चंद्र पर पड़ती है, तो चंद्र ग्रहण होता है। इसी प्रकार चंद्र जब पृथ्वी और सूर्य के बीच में आता है और वह सूर्य को ढक लेता है, तब सूर्यग्रहण होता है। कोई राहु नाम का राक्षस सूर्य को निगल जाता है-यह कथन पुराण की कथा है।”

परियोजना कार्य-3

कुलू प्राचीन हिंदू-सभ्यता का गहवारा है। यहाँ प्रत्येक कस्बे और ग्राम के अपने-अपने देवता हैं, जो अपने-अपने मंदिरों में बैठे हुए लोगों की पूजा पाते हैं और साल में एक बार अपने-अपने रथों में बैठकर कुलू के रघुनाथ मंदिर में प्रतिष्ठित राम की उपासना के लिए जाते हैं। सैकड़ों देवी-देवताओं और उनके मंदिरों के कारण और इस विराट देव-सम्मेलन के कारण ही, कुलू प्रदेश का नाम देवताओं का अंचल (वैली ऑफ दि गॉड्स) पड़ा है। ये सब असंख्य देवी-देवता और ऋषि-मुनि यहाँ के आदिम निवासियों द्वारा पूजे जाते थे।

यहाँ पर दशहरे के दिन विजयी राम का उत्सव होता है, जिसमे आसपास के सब देवी-देवता रथों में बिठाकर लाए जाते हैं। इस विराट उत्सव में, ऐसा सुनने में आता है, हज़ार-हज़ार तक देवता शामिल होते हैं। कुलू-प्रांत में व्यास-कुंड तथा व्यास मुनि, वसिष्ठ आदि ऋषि-मुनियों के स्थान हैं, पांडवों के मंदिर हैं, भीम की पत्नी हिडिंबा ‘देवी’ भी पूजा पाती है; और सबसे बढ़कर महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वहाँ पर ‘मनु रिखि’ या मनु भगवान का भी एक मंदिर है।

शायद भारत में एकमात्र स्थान है, जहाँ मानवता का यह स्वयंभू आदिम प्रवर्तक मंदिर में प्रतिष्ठित हो और पूजा पाता हो। दशहरे के अवसर पर यहाँ बड़ा भारी मेला भी लगता है। साल भर का व्यापार प्रायः इस एक दिन में ही हो जाता है-बाहर से आए हुए यात्रियों के लिए बनी हुई देशी-अंग्रेज़ी दुकानों और कुछ होटलों या पंसवारी-हाट की बात अलग है इसलिए यहाँ पर ग्राहक और विक्रेता दोनों ही बड़ी उमंगें लेकर आते हैं।

रंग-बिरंगे कंबल, पट्ट-पट्टियाँ, पश्मीना, ‘चरू’ और अन्य प्रकार की खालें – रीछ की, मृग की, बाघ की, कभी-कभी बर्फ के बाघ (स्नो-लेपर्ड) की; तरह-तरह के जूते, मोज़े, सिली-सिलाई पोशाकें, टोपियाँ, बाँसुरी, बरतन, पीतल और चाँदी के आभूषण, लकड़ी, हड्डी और सींग की कंघियाँ, देशी और विदेशी काँच, बिल्लौर और पत्थर के मनकों के हार-न जाने क्या-क्या चीजें वहाँ आती हैं और देखते-देखते बिक जाती हैं – दिन-भर में हज़ारों की संपत्ति हाथ बदल लेती है… तमाशे होते हैं, नाच होते हैं, गाना-बजाना होता है, जगमग रोशनी होती है।

उस दिन कुलू में दो घंटे ठहरे। भोजन किया और फिर लारी में बैठकर आगे बढ़े। मनाली देवताओं के अंचल का ऊपरी छोर-कुलू 23 मील है। अध-बीच में कटराई की बस्ती है। कटराई से चलकर मोटर कलाथ होती हुई मनाली जा पहुँची। मनाली या मुनाली ने यह नाम मुनाल नामक पक्षी से पाया, जो यहाँ बहुतायत से होता है। फेजेंट जाति का हिमालय का यह पक्षी अत्यंत सुंदर होता है। इसके संबंध में यहाँ के लोगों में कई किंवदंतियाँ भी सुनने में आती हैं, लेकिन मैदानी भाग में रहने वाले लोग मनाली को वहाँ के सेबों के कारण ही जानते हैं।

सेब और नाशपाती के लिए मनाली शायद संसार में बढ़िया स्थान है। मनाली की दो बस्तियाँ हैं – एक तो बाहर से आकर बसे लोगों द्वारा बनाए हुए बँगलों और बाज़ार वाली बस्ती, जो दाना कह और दूसरी उससे करीब मील-भर ऊपर चलकर खास मनाली मोटर दाना तक जाती है। दाना से सड़क फिर व्यास नदी पर रोहतांग की जोत से होकर लाहौल को चली जाती है। इसी मार्ग में से दो मील की दूरी पर वसिष्ठ नाम का गाँव है, जहाँ गरम पानी है और वसिष्ठ मंदिर भी है। कहते हैं कि वसिष्ठ ऋषि यज्ञ करते-करते पाषाण हो गए थे; पाषाण मूर्ति वहाँ पूजी भी जाती है।

यहाँ पानी में गंधक की मात्रा काफ़ी है, और यह स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। रोहतांग की जोत पर ही व्यास-कुंड है। यहाँ से कुछ मील हटकर मुनि का स्थान है, जहाँ से व्यास नदी का उद्गम है। रोहतांग का यह स्थान रमणीक है। व्यास नदी के वेग से किस तरह पहाड़ के पहाड़ को वह भी देखने की चीज़ है। कहीं-कहीं तो नदी आठदस फुट में चार-पाँच सौ फुट नीचे जाकर अदृश्य हो गई है, केवल स्वर सुरक्षित है। इसका कारण यह है कि व्यास नदी बहुत तीव्र गति से नीचे गिरती है-अपने मार्ग के पहले पाँच मील में जितना नीचे उतर आती है, अगले पचास मील में नहीं, और उसके बाद में पाँच सौ मील में।

रोहतांग की जोत के दूसरी पार कोकसर पड़ाव है। यहाँ जाते हुए बर्फ के सौंदर्य का जो दृश्य दीखता है, मैंने दूसरा नहीं देखा। उसका न वर्णन हो सकता है, न चित्र खिंच सकता है। कुछ मीलों के दायरे का एक प्याला-सा बना हुआ है, जिसके सब ओर ऊँचीऊँची हिमावृत चोटियाँ, उससे कुछ नीचे पहाड़ों के नंगे काले अंग, और प्याले के बीच में फिर बरफ़ से छाया हुआ मैदान – मानो अभिमानी पर्वत-सरदारों ने अपना शीश और कटि-प्रदेश तो ढक लिया है। लेकिन छाती दर्प से खोल रही है…।

इस स्थान से तीन नदियों का उद्गम है, ऊपर से व्यास, मध्य से चंद्रा और भागा, जो आगे चलकर मिल जाती है। दाना के दूसरी ओर पहाड़ के ढलान पर चीड़ के जंगल में हिडिंबा देवी का मंदिर है। एक चीड़ वृक्ष के तने के आसपास बना हुआ यह लकड़ी का चार-मंजिला मंदिर दर्शनीय है। इसके द्वारों पर नक्काशी का जो काम है, वह कई सौ बरस पुराना है। एक पट्टे पर लेख भी खुदा हुआ है। मंदिर से मनाली की ओर जाते हुए मार्ग दो चट्टानों के बीच होकर गुजरता है, जो अपने आकार के कारण ‘देवी का चूल्हा’ प्रसिद्ध है।

कहते हैं कि हिडिंबा देवी मनुष्य भून-भूनकर तैयार करती थी। मनाली की बस्ती के ऊपरी छोर पर मनु रिखि छोटा है, विशेष सुंदर भी नहीं है। लेकिन मनु का एकमात्र मंदिर होने के कारण विशेष महत्त्व रखता है। मैं मनाली आया तो था स्वास्थ्य-लाभ करने, लेकिन आकांक्षा यह थी कि एकांत में रहकर एक बड़ा-सा उपन्यास लिख डालूँगा। जेल में रहते हुए उसका ढाँचा तैयार हुआ था, अंग्रेज़ी में पूरा लिख भी डाला था; लेकिन जेल के चार वर्ष ने दिखा दिया था कि उसमें अभी लड़कपन बहुत है।

एक बार मैंने एक विद्रोही के पूरे जीवन का चित्र खींचने की कोशिश की और जहाँ तक चित्र का संबंध था वह काफ़ी सच्चा उतरा था। भूमि पर वह खींचा गया था-भारतीय समाज और संस्कृति का ज्ञान मेरा अधूरा ही था और इसलिए चित्र ठीक नहीं था। अब के आधार पर परिवर्तन और परिष्कार करके मैं उसे फिर खींचना चाहता था। उपन्यास को मैं जीवन-दर्शन मानता हूँ और इस दृश्य चीज़ को लिखने के लिए एकांत ज़रूरी था। तभी मैं ‘परिचित सभी बस्ती से अलग मनाली में आ जमा था। मनाली स्थिति के कारण ही नहीं, सौंदर्य के कारण भी अंचल का सुनहला ऊपरी छोर है। दृष्टि-क्षेत्र में सींखचे-ही-सींखचे की आदी मेरी आँखें इस विराट सौंदर्य को पीती जाती थीं और स्वयं पर विश्वास नहीं कर पाती थीं।

प्रश्नः 1.
लारी चार मील की रफ्तार से तेज़ न चले, इसके लिए वहाँ क्या प्रबंध किया गया था?
उत्तरः
लारी चार मील की रफ़्तार से तेज़ न चले, इसके लिए वहाँ यह प्रबंध किया गया था कि पुल का चौकीदार अपनी पीठ पर एक तख्ती टाँगे आगे-आगे चलता था। उस तख्ती पर लिखा था-चार मील रफ़्तार। इस आदमी के पीछे-पीछे इसी की चाल से चलो।’ उस चौकीदार के पीछे लारी चलती थी।

प्रश्नः 2.
मणिकर्ण के गरम पानी के स्रोतों की क्या विशेषता है?
उत्तरः
मणिकर्ण में गरम पानी के कई स्रोत हैं। इन स्रोतों की विशेषता यह है कि हर स्रोत के पानी की उष्णता में अंतर है। किसी का पानी इतना गरम है कि उसमें नहाया जा सकता है तो किसी का इतना गरम कि उसमें चावल तक उबाले जा सकते है।

प्रश्नः 3.
कुलू प्रांत में कौन-कौन से दर्शनीय स्थान हैं?
उत्तरः
कुलू प्रांत में व्यास कुंड तथा व्यास मुनि, वसिष्ठ आदि ऋषि-मुनियों के स्थान हैं। पांडवों के मंदिर भी हैं। वहाँ भीम की पत्नी हिडिंबा देवी की भी पूजा होती है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि वहाँ मनु ऋषि यानी मनु भगवान का भी एक मंदिर है। कुलू प्रांत में ये सब स्थान दर्शनीय हैं।

प्रश्नः 4.
दशहरे के उत्सव को विराट उत्सव क्यों कहा गया है?
उत्तरः
कुलू में प्रत्येक गाँव और कस्बे के अपने-अपने देवता हैं। दशहरे के अवसर पर ये देवता अपने-अपने रथों में बैठकर कुलू के रघुनाथ मंदिर में प्रतिष्ठित राम की उपासना के लिए आते हैं। यहाँ पर दशहरे के दिन विजयी राम का उत्सव होता है, जिसमें आसपास के सब देवी-देवता रथों में बिठाकर लाए जाते हैं। इस विराट उत्सव में ऐसा सुनने में आता है, हजारों हज़ार तक देवता शामिल होते हैं। इसीलिए दशहरे के उत्सव को विराट उत्सव कहा जाता है।

प्रश्नः 5.
मनु का मानवता का स्वयंभू आदिम प्रवर्तक क्यों कहा गया है?
उत्तरः
स्वयंभू का अर्थ है जो अपने आप बना हो। ऐसी मान्यता है कि मनु से मानव उत्पन्न हुए हैं। इसीलिए मनु को स्वयंभू कहा गया हैं अर्थात् मनु स्वयं ही मानवता के आदिम प्रवर्तक बन गए।

प्रश्नः 6.
लेखक ने मनाली के नामकरण के पीछे क्या कारण बताया है?
उत्तरः
लेखक ने बताया है कि मनाली में मुनाल नामक पक्षी बहुतायत से होता है। फेजेंट जाति का हिमालय का यह पक्षी अत्यंत सुंदर होता है। इसके संबंध में यहाँ के लोगों में कई किंवदंतियाँ भी सुनने में आती हैं। लेखक के अनुसार इस पक्षी के कारण ही इस स्थान का नाम मनाली पड़ा है।

प्रश्नः 7.
कुलू में दशहरे का उत्सव किस प्रकार मनाया जाता है?
उत्तरः
कुलू में प्रत्येक गाँव और कस्बे के अपने-अपने देवता हैं जो अपने-अपने मंदिरों में बैठे हुए लोगों की पूजा पाते हैं। ये ही देवता साल में एक बार दशहरे के अवसर पर कुलू स्थित रघुनाथ मंदिर में प्रतिष्ठित भगवान राम की उपासना के लिए अपने-अपने रथों पर बैठकर कुलू जाते हैं। ये सब असंख्य देवी-देवता दशहरे के दिन कुलू में एकत्रित होते हैं। यहाँ पर तमाशे होते हैं, नाच होते हैं और जगमग रोशनी होती है।

परियोजना कार्य-4

लेखक ने चंद्रा के विषय में बताया है। सबसे पहले चंद्रा को देखकर उसे बहुत आश्चर्य हुआ था। लेखिका ने अपनी कोठी के सामने वाली कोठी के आंगन में एक बार देखा कि एक कार आकर रुकी और उसमें से एक अपाहिज युवती, बिना किसी दूसरे की सहायता से बैसाखियों के सहारे नीचे उतरी। स्वयं ही उसने कार में से पहियों वाली कुरसी बाहर निकाली तथा उस पर बैठकर, उसे अपने हाथों से सरकाती हुई अंदर चली गई। उस युवती का नाम चंद्रा था। उसका निचला धड़ एकदम बेकार हो चुका था।

केवल हंसमुख चेहरा और दोनों हाथ सही थे। फिर भी, उसने बड़ी हिम्मत और उमंग से अपनी जीवनचर्या चलाई। उसके मन में कभी अपने अपाहिज होने की उदासी या चिंता नहीं आने पाई। उसने विधाता या भाग्य को दोष नहीं दिया, बल्कि निरंतर अध्ययन तथा परिश्रम के बल पर विज्ञान जैसे कठिन विषय में उसने पी.एच.डी. करके एक आदर्श उदाहरण लोगों के सामने प्रस्तुत किया। इसीलिए लेखिका चाहती है कि इस साहसी युवती डॉक्टर चंद्रा की कहानी अन्य ऐसे लोग भी पढ़ें जो जीवन में जरा-सी मुसीबत आते ही निराश होकर आत्महत्या कर लेना चाहते हैं।

ऐसे दुर्बल युवकों में एक लखनऊ का युवक था, जो बहुत सुंदर और बुद्धिमान था। एक बार वह आई.ए.एस. (भारतीय प्रशासनिक परीक्षा) की परीक्षा देकर इलाहाबाद से रेल द्वारा लौट रहा था, तो मार्ग में किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकने पर चाय लेने के लिए उतरा। अचानक गाड़ी चल पड़ी। चलती गाड़ी में चढ़ने की कोशिश करते हुए वह गिर पड़ा और उसका हाथ गाड़ी के पहिए के नीचे आने से कट गया। इस दुर्घटना से वह पागल-सा हो गया। पहले वह नशे की गोलियाँ खाने लगा और फिर वेश्याओं के पास जाने लगा।

लेखिका को आश्चर्य है कि उस बांके युवक ने केवल एक हाथ कट जाने से अपना जीवन बर्बादी के रास्ते पर डाल दिया। दूसरी ओर यह युवती चंद्रा है, जिसके शरीर का सारा निचला भाग एक बेजान माँस का टुकड़ा भर है, फिर भी वह निराश नहीं है। उसके चेहरे पर दुख या चिंता का कोई चिह्न नहीं है। आम लोगों की कोई एक हड्डी भी टूट जाए या पैर में ज़रा मोच आ जाए, तो वे हाहाकार से आकाश सिर पर उठा लेते हैं, किंतु चंद्रा का सारा निचला धड़ सुन्न हो जाने पर भी उसमें पढ़ने का जोश है, ऊँची नौकरी पाने की महान् आकांक्षा और लगन है।

चंद्रा जब केवल डेढ़ वर्ष की थी, तभी पोलियो के कारण उसका शरीर सुन्न-सा हो गया था। हल्का-सा ज्वर हुआ और चौथे दिन अचानक लकवे के कारण गरदन के नीचे का सारा शरीर निर्जीव-सा हो गया। बड़े-बड़े डॉक्टरों को दिखाने पर यही जवाब मिला कि रुपया बरबाद करना बेकार है, इसका कोई इलाज नहीं। किंतु चंद्रा की माँ श्रीमती सुब्रह्मण्यम् ने हिम्मत नहीं हारी। न ही उसने विधाता को कोई दोष किया। उसने अपनी नन्ही बच्ची चंद्रा को जीवित रखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी।

एक डॉक्टर से सालभर इलाज कराने के बाद ऊपरी धड़ अर्थात् सिर, मुख, आँख, कान, नाक, हाथ में तो चेतना आ गई, परन्तु निचले भाग में जड़ता बनी रही। माँ ने उसे धीरे-धीरे बोलना और बैठना सिखाया। पाँच वर्ष की आयु में उसे माँ पढ़ाने लगी। बालिका चंद्रा की बुद्धि इतनी तीव्र थी कि वह बहुत जल्दी सब कुछ सीख लेती थी। अंग्रेज़ी शिक्षा वाले अच्छे स्कूल की प्रिंसिपल ने उसे प्रवेश देने में जब मज़बूरी प्रकट की, तो माँ ने एक प्रकार से स्कूल के द्वार पर सत्याग्रह कर दिया।

आखिर स्कूल की मदर मान गई। बालिका चंद्रा को पहियों वाली कुरसी पर बिठाकर उसकी माँ स्कूल ले जाती, हर कक्षा में उसके साथ रहती। दिनभर वह चंद्रा के संग-संग रहकर उसकी शिक्षा में सहायता करती रही। धीरे-धीरे चंद्रा ने अनेक परीक्षाएँ पास की। हर बार सर्वोच्च अंक प्राप्त किए। कई स्वर्ण पदक जीते। अंत में बी.एस.सी. के लिए भी स्थान प्राप्त कर लिया। तब तक उसके माता-पिता ने पेंसिलवानिया से एक ऐसी पहियों वाली कुरसी मंगवा दी, जिसे चंद्रा स्वयं चलाकर जहाँ चाहे, जा सकती थी।

उसके निचले धड़ पर हर समय चमड़े की एक पेटी, धड़ को सीधा रखने के लिए रहती थी और वह स्वस्थ व्यक्तियों से भी अधिक फुर्ती से, अपने हाथों से सब काम करती रहती थी। इस तरह माँ की अचल साधना तथा अपनी अद्भुत प्रतिभा और मेहनत से चंद्रा ने विज्ञान जैसे विषय में डॉक्टर की उपाधि प्राप्त कर ली। विज्ञान के अतिरिक्त चंद्रा की भाषा, साहित्य और समाज-सेवा में भी बड़ी रुचि थी उसकी अपनी लिखी कविताएँ पढ़कर लेखिका विस्मित हो गई थी।

उन कविताओं के अंत:करण के करुण भाव मानो साकार हो उठे थे। इसी प्रकार उसने माँ के साथ मैक्समूलर भवन से जर्मन भाषा में विशेष योग्यता प्राप्त की। इसके अतिरिक्त ‘गर्लगाइड’ की सदस्य बनकर भी उसने राष्ट्रपति से पदक प्राप्त किया। इतना ही नहीं, भारतीय और पाश्चात्य संगी में भी उसकी विशेष रुचि थी। इतनी व्यस्त रहते हुए भी वह कढ़ाई-बुनाई के लिए समय निकाल लेती थी। उसकी कढ़ाई-बुनाई के नमूने देखकर लेखिका के आश्चर्य की सीमा न रही।

निश्चय ही चंद्रा की इस उन्नति, महानता और प्रशंसा में उसकी माँ का विशेष योगदान था। इसीलिए जे.सी. बेंगलूर द्वारा उन्हें ‘वीर जननी’ का विशेष सम्मान प्रदान किया गया। चंद्रा की माँ श्रीमती सुब्रह्मण्यम् का यह कथन लेखिका को कभी नहीं भूलता-“ईश्वर सब द्वार एक साथ बंद नहीं करता। वह एक द्वार बंद करता भी है, तो दूसरा द्वार खोल भी देता है।”

प्रश्नः 1.
लेखिका ने जब पहली बार डॉ० चंद्रा को कार से उतरते देखा तो आश्चर्य से क्यों देखती रह गई ?
उत्तरः
लेखिका ने जब पहली बार डॉ० चंद्रा को कार से उतरते देखा तो वह आश्चर्य से देखती ही रह गई। इसका कारण यह था कि डॉ० चंद्रा का निचला धड़ पूरी तरह निष्प्राण था। इसके बावजूद वह बड़ी दक्षता के साथ बिना किसी सहारे के कार से उतरी और बैसाखियों से ही व्हील चेयर तक पहुँचकर उसमें बैठ गई। फिर बड़ी तटस्थता से उसे स्वयं चलाती कोठी के भीतर तक चली गई। उसका यह विचित्र आवागमन ही लेखिका के आश्चर्य का कारण था।

प्रश्नः 2.
‘अभिशप्त काया’ से लेखिका का क्या आशय है?
उत्तरः
अभिशप्त काया का अर्थ है-शापग्रस्त शरीर। डॉ० चंद्रा का शरीर किसी सामान्य व्यक्ति के शरीर की भाँति नहीं था। उसका निचला धड़ पूरी तरह से निश्चल और निष्प्राण था। ऐसा किसी शाप के कारण ही संभव है। इसीलिए लेखिका ने उसके लिए अभिशप्त काया का प्रयोग किया है।

प्रश्नः 3.
चिकित्सा क्षेत्र की हानि विज्ञान का लाभ कैसे बन गई?
उत्तरः
डॉ० चंद्रा चिकित्सा के क्षेत्र में जाना चाहती थी। परीक्षा-परिणाम में उन्हें सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ था, किंतु उनकी विकलांगता के कारण उसे चिकित्सा-क्षेत्र में प्रवेश नहीं मिला। इसके बाद डॉ० चंद्रा ने विज्ञान विषय लिया और माइक्रोबायलोजी में शोध कार्य किया। उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त हुई। इस प्रकार डॉ० चंद्रा की अद्भुत प्रतिभा से चिकित्सा क्षेत्र वंचित रहा और विज्ञान को उसका लाभ हुआ।

प्रश्नः 4.
‘मैडम मैं चाहती हूँ मुझे सामान्य-सा सहारा भी न दे।’ इस कथन से डॉ० चंद्रा के चरित्र की कौन-सी विशेषता उभरती है?
उत्तरः
उक्त कथन से डॉ० चंद्रा के आत्मविश्वास और आत्मसम्मान की भावना का पता चलता है।

प्रश्नः 5.
डॉ० चंद्रा की कविताएँ देखकर लेखिका की आँखें क्यों भर आईं ?
उत्तरः
लेखिका डॉ० चंद्रा ने अपनी कविताएँ दिखाई उनकी कविताओं को लेखिका ने बड़े ध्यान से देखा। जो पीडा कभी डॉ० चंद्रा के चेहरे पर नहीं आई थी वह उसकी कविताओं में आई थी। यही कारण था कि डॉ० चंद्रा की कविताएँ देखकर लेखिका की आँखें भर आईं।

प्रश्नः 6.
हमें कब अपने जीवन की रिक्तता बहुत छोटी लगने लगती है?
उत्तरः
सामान्यतः व्यक्ति अपने जीवन के अभाव के लिए विधाता को दोष दिया करते हैं। दूसरी ओर ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जिनके जीवन में अभाव ही अभाव होते हैं, परंतु वे किसी से कोई शिकायत नहीं करते। जब कभी ईश्वर हमें किसी ऐसे व्यक्ति से मिला देता है जिसके अभाव और रिक्तताएँ हमारी रिक्तताओं से कहीं अधिक हैं, तो हमें अपने जीवन की रिक्तता बहुत छोटी लगने लगती है।

प्रश्नः 7.
लेखिका यह क्यों चाहती थी कि लखनऊ का युवक डॉ० चंद्रा के संबंध में लिखी उनकी पंक्तियों को पढ़े?
उत्तरः
लखनऊ का युवक एक दुर्घटना में अपना दायाँ हाथ खो बैठा था। वह इस दुख को सहन नहीं कर पाया और नशे का शिकार हो गया व बाद में चारित्रिक पतन का भी शिकार हो गया। उधर डॉ० चंद्रा अपने पूरे निचले धड़ के निष्प्राण होने पर भी उत्साह और जिजीविषा से भरी थी। लेखिका चाहती थी कि वह युवक डॉ० चंद्रा के बारे में उसकी लिखी गई पंक्तियों को पढकर अपनी हताशा का परित्याग करे और उत्साह के साथ जीवन-पथ पर आगे पढे।

परियोजना कार्य-5

यह कथा बालक नचिकेता के माध्यम से एक ऐसा चरित्र प्रस्तुत करती है जिसमें अटूट, सत्य-निष्ठा, दृढ़ पितृ-भक्ति के साथ-साथ अनुचित कार्य करने पर पिता का विरोध करने का और आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए सांसारिक सुखों के प्रलोभनों को ठुकरा देने का साहस भी है। यज्ञ की अग्नि प्रज्ज्वलित थी। सारे वातावरण में सुगंध व्याप्त थी। वाजश्रवा के चेहरे पर विशेष प्रसन्नता झलक रही थी। उसके द्वारा आयोजित यज्ञ की आज पूर्णाहुति थी। देशभर के बड़े-बड़े विद्वान और ऋषि-मुनि पधारे थे। यज्ञ समाप्त हुआ।

ब्राह्मणों ने वाजवा को आशीर्वाद दिया और वाजश्रवा ने उन्हें दक्षिणा देना प्रारंभ किया। किंतु ऐसी निर्बल और बूढ़ी गाएँ देने लगा जिन्होंने दूध देना ही बंद कर दिया था। लोग दबी ज़बान से वाजश्रवा की आलोचना कर रहे हैं, किंतु सबसे अधिक दुखी कोने में बैठा वह किशोर बालक है। खिन्न मन से वह उनके पास गया और बोला, “पिता जी, दक्षिणा में तो यजमान अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु देते हैं। आपने तो ऐसी गाएँ दी हैं, जिनका आपके लिए कोई उपयोग ही नहीं रह गया है।

इससे आपको पुण्य नहीं मिलेगा।” फिर कुछ रुककर बोला, “पिता जी, आपको सबसे प्रिय तो मैं हूँ, आप मुझे ही किसी को दक्षिणा में क्यों नहीं दे देते?” वह बार-बार पूछता, “आप मुझे किसको दक्षिणा में दे रहे हैं?” वाजश्रवा झुंझला उठे। बच्चे के हठ से क्रुद्ध होकर वे बोले, “जा, मैंने तुझे मृत्यु को दिया।” नचिकेता ने मृत्यु के देवता यमराज के पास जाने की अनुमति माँगी। वाजश्रवा को अपनी गलती का अहसास हुआ, किंतु अब उपाय ही क्या था? नचिकेता अपने पिता और अन्य सभी संबंधियों से विदा लेकर यमराज के घर चल दिया।

यमराज उस समय यमपुरी में नहीं थे। तीन दिन तक वह किशोर भूखा-प्यासा उनके दरवाजे पर पड़ा रहा। यमराज लौटे तो एक ब्राह्मण कुमार को अपने घर इस दशा में देखकर बहुत दुखी हुए। उसके मुख पर तेज था और चेहरे पर दृढ़ता झलक रही थी। यमराज ने नचिकेता का यथोचित सत्कार कर उसके आने का प्रयोजन पूछा। नचिकेता ने अपने पिता के यज्ञ की सारी कथा सुनाकर आने का कारण बताया। यमराज बोले, “नचिकेता, तुम्हारी पितृ-भक्ति और दृढ़ निश्चय से मैं बहुत प्रसन्न हूँ।

साथ ही मुझे इस बात का बहुत दुख है कि तुम्हें तीन दिन मेरे दरवाज़े पर भूखा-प्यासा रहना पड़ा। इसका प्रायश्चित करने के लिए मैं तुम्हें तीन वर देना चाहता हूँ।”

  1. उसके पिता जी क्रोध छोड़कर, उसे पहले के समान प्यार करने लगे।
  2. उसे स्वर्ग प्राप्त करने का उपाय बताया जाए।
  3. उसे आत्मा का रहस्य समझाया जाए।

उसकी बात सुनकर यमराज और भी प्रसन्न हुए क्योंकि नचिकेता ने धन-संपत्ति या राज्य न माँगकर आत्म-ज्ञान माँगा था। यमराज ने उसे समझाया कि आत्म-ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। हमारा शरीर रथ है। इंद्रियाँ उस रथ के घोड़े हैं। मन लगाम और बुद्धि रथवान है। आत्मा उसमें सफर करने वाले यात्री के समान है। हे पुत्र! उठो, जागो और श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करो। इस प्रकार यमराज ने उसकी इच्छा पूरी की। वह यमराज से स्वर्ग को प्राप्त करने का उपाय तथा आत्मा का रहस्य जानकर, वरदान के अनुसार वापस धरती पर आ गया। बाद में वह यमराज के उपदेशों का पालन करते हुए एक विद्वान और धर्मात्मा ऋषि के रूप में प्रसिद्ध हुआ।

प्रश्नः 1.
यज्ञ की समाप्ति पर वाजश्रवा को किस मोह ने घेर लिया था?
उत्तरः
यज्ञ की समाप्ति पर वाजश्रवा के मन संपत्ति के मोह का भाव जाग गया। उसने अपनी पूरी संपत्ति दान में देने का निश्चय किया था, परंतु वह बूढ़ी और अशक्त गायों का दान कर रहा था। कारण यह था कि उसके मन को संपत्ति के मोह ने घेर लिया था।

प्रश्नः 2.
नचिकेता अपने पिता के किस व्यवहार के कारण दखी हो गया था?
उत्तरः
नचिकेता के पिता निर्बल बूढी व दूध न देने वाली गाय दान कर रहे थे। उसे यह कपटतापूर्ण व्यवहार अच्छा नहीं लग रहा था। लोग उसके पिता की आलोचना कर रहे थे। स्वयं उसे भी अपने पिता द्वारा बूढी गायों को दान में देना अनुचित लग रहा था। इसीलिए वह दुखी हो गया था।

प्रश्नः 3.
नचिकेता के अनुसार दक्षिणा का क्या रूप होना चाहिए?
उत्तरः
नचिकेता के अनुसार दक्षिणा में यजमान को अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु दान में देनी चाहिए। निरर्थक और अनुपयोगी वस्तुओं को दान में देने से दानकर्ता को कोई पुण्य प्राप्त नहीं होता।

प्रश्नः 4.
नचिकेता की दृष्टि में कौन-सी वस्तु पृथ्वी और स्वर्ग के सुख से भी बढ़कर थी?
उत्तरः
नचिकेता की दृष्टि में एक वस्तु ऐसी है जो पृथ्वी और स्वर्ग के सुख से भी बढ़कर है। वह वस्तु है हमारी आत्मा। आत्मा का सच्चा स्वरूप क्या है?

प्रश्नः 5.
वाजश्रवा नचिकेता को मृत्यु को देने की बात को वापस क्यों न ले सका?
उत्तरः
नचिकेता बार-बार अपने पिता से प्रश्नः कर रहा था कि आप मुझे किसे दक्षिणा में दे रहे हैं परंतु वे व्यस्त थे और बालक के इस प्रश्नः पर वे झुंझाला उठे। उन्होंने क्रोध में आकर कह दिया कि ‘जा मैंने मुझे मृत्यु को दिया।’ भूल से ही सही, एक बार जो बात कह दी, उसे वापस लेना संभव नहीं था। धनुष से छूटा तीर वापस नहीं लौटाया जा सकता। अतः वे नचिकेता के मृत्यु को देने की बात को वापस न ले सके।

प्रश्नः 6.
यमराज को किस बात का दुख हुआ और उन्होंने उसके लिए प्रायश्चित क्यों किया?
उत्तरः
जब नचिकेता यमराज के घर पहुँचा उस समय यमराज वहाँ पर नहीं थे। नचिकेता को तीन दिन तक भूखे-प्यासे उनकी प्रतीक्षा करनी पड़ी। जब यमराज आए तो एक ब्राह्मण किशोर को अपने घर इस दशा में देखकर बहुत दुखी हुए। उन्होंने नचिकेता से कहा, “मुझे इस बात का बहुत दुःख है कि तुम्हें तीन दिन मेरे दरवाज़े पर भूखा-प्यासा रहना पड़ा। इसका प्रायश्चित करने के लिए मैं तुम्हें तीन वर देना चाहता हूँ।”

प्रश्नः 7.
नचिकेता ने यमराज से कौन-से तीन वर माँगे?
उत्तरः
नचिकेता ने यमराज से निम्नलिखित तीन वर माँगे

  1. “मेरे पिता जी का मुझ पर क्रोध शांत हो जाए और जब मैं आपके पास से वापस जाऊँ, तो वे मुझे पहचान लें और प्यार से बोलें।”
  2. “लोग कहते हैं कि स्वर्गलोक में बहुत सुख मिलता है। न वहाँ भूख-प्यास की चिंता है, न बुढ़ापा है, न कोई रोग। वहाँ के निवासी हर समय अलौकिक सुख का ही उपभोग करते हैं, वहाँ आपका पाश भी नहीं पहुँचता और न लोगों को किसी अन्य प्रकार का भय ही लगता है। उस आनंदपूर्ण स्वर्ग को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है, मुझे इसका
    उपदेश कीजिए।”
  3. “कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु के बाद आत्मा रहती है, कुछ कहते हैं कि नहीं रहती। इस विषय में मेरा अज्ञान अंत तक दूर नहीं हुआ है। तीसरे वर के रूप में कृपा कर मुझे आत्मा का रहस्य समझाइए।”

अभ्यास प्रश्नः

परियोजना कार्य-1

शर्मा बहुत दिन बाद मिले और ऐसी जगह जहाँ आशा न थी-अपने प्रांत से दूर, बंगलूर में बहुत खुशी हुई, गले मिले और होटल गए। दुनिया भर की गप्पें लगीं। अरसा हो गया था उनसे चिट्ठी भी मिले। जाने क्या-क्या हो गया इस बीच? बहुत मिलनसार थे। बातूनी भी। जिंदगी में बड़ा तजुर्बा हासिल किया था। फिर चुप रहे भी तो कैसे? दस-पंद्रह साल पहले जब उनसे मिला था, तब वे एक छोटे-से अखबार में उप-संपादक थे उम्र तब तीसेक की रही होगी। अब चेहरा पटरीदार हो गया था। गुज़रते समय ने गहरे निशान छोड़े थे।

पता नहीं कि उनको कैसे सूचना मिल गई कि मैं शहर पहुंच रहा हूँ। वे स्टेशन आ गए “अरे, आप हमें चिट्ठी लिख देते मैं ” वे कहते-कहते इधर-उधर देखने लगे। “चिट्ठी तो तब लिखता न, जब आप अपना पता देते?” मैंने कहा। “हाँ, गलती मेरी ही है। मुझे केशवन मिल गए। न मिलते तो आपसे मिल ही न पाता आपने उनको लिखा था न? आप नहीं जान सकते कि मैंने कितनी बार आपको लिखने की चेष्टा की कितनी बार चिट्ठियाँ लिख-लिखाकर फाड़ीं थी, क्या लिखा? एक दुखड़ा हो तो रोऊँ भी?” “क्यों, क्या हो गया?” “कभी हम किस्से लिखते थे, लेकिन अब, खुद किस्सा हो गए।”

“घर में सब ठीक तो है न?” “ठीक ही है, अगर जिंदगी टेढ़ी लकीर पर ही चलती रहे तो वह भी सीधी लगने लगती है।” “हँस लेता हूँ, रो-रोकर यही सीखा है मुश्किलों पर हँसना बेहतर है।” “सोचा था, हमारी जिंदगी जो है, सो है। कम-से-कम बच्चों की जिंदगी तो बने और बन भी गई थी। लेकिन फलने का मौसम आया तो पेड़ पर ही बिजली गिर गई।” “वह ठीक तो है न?” “हाँ, ठीक ही होगा उस लोक में, जहाँ कहते हैं, हर मरा-मारा भी आराम पाता है, किंतु वहाँ से लौटकर किसी ने बताया नहीं कि कितना आराम है।”

वे फिर ज़ोर से हँसे। पागलों-जैसी हँसी गहरे दुख को छुपाने की बनावटी हँसी। मैं हँस नहीं पाया। मैंने सोचा कि वह क्षण आ गया है जिसकी आशंका थी। अब क्या करूँ? बैरे को बुलाने के लिए घंटी बजाई। शर्मा जी ने पूछा, “काफ़ी लेंगे?” “जी नहीं, खैर, आप पुराने मित्र हैं, हितैषी हैं, इसलिए मैं वे फिर हँसे, विवशता की हँसी। “अब भी इतना गया-गुज़रा नहीं कि अखबारों के काम भी न आ सकूँ। आप संपादक हैं। कुछ कर सकते हैं। सात-आठ साल की सज़ा काफ़ी होती है।” वे हँसे। “हाँ। हाँ, ज़रूर” मेरे कहने से सहृदयता कम थी, औपचारिकता अधिक।

“आप इतने दिन बाद मिले और हमारे ही शहर में।” “हाँ, बड़ी खुशी हुई।” “आज शाम हमारे यहाँ खाना रहा। आपको लेने आ जाऊँगा, गेरा घर स्टेशन के पास ही है। वहीं से आपको पहुँचा दूंगा। ठीक है न।” शर्मा चले गए। मैंने सोचा कि पिण्ड छूटा। दिन भर काम में मशगूल रहा। होटल पहुंचा, तो शर्मा प्रतीक्षा कर रहे थे। “आइए काफ़ी पिएँ, बहुत थके हुए दीखते हैं।” उन्होंने कहा। हमने काफ़ी ली। बिल शर्मा ने चुकाया। मुझे बुरा लगा। कमाऊ आदमी का बिल बेरोज़गार आदमी चुकाए।

यह न शालीनता थी, न शिष्टता ही। फिर जो आदमी एक-एक पैसा संभाल कर खर्चता है, तो बिना मतलब के नहीं। आखिर इनका उद्देश्य क्या है? मैं नहाने चला गया। शर्मा मेरी प्रतीक्षा करते रहे। होटल का बिल चुकाया। शर्मा ने ही गाड़ी का इंतज़ाम किया। वे मुझे अपने घर ले गए। घर क्या था एक अच्छे मोहल्ले में एक छोटा-सा कमरा। चारों ओर किताबें ही किताबें। फर्श पर घिसी हुई दरी। बीचों-बीच लालटेन रखी थी। “मैंने सब चीजें बेच दी पेट के लिए। घर नंगा कर दिया।

लेकिन किताबें नहीं बेच पाया। कैसे बेचता? यह भी ठीक ही है कि किताबें खरीदने वाला कोई नहीं है, नहीं तो एक और शाप लगता।”।”हूँ” मैं इधर-उधर देखने लगा। भोजन के न्यौते पर लाए हैं और यहाँ उनका लड़का नहीं है-कहीं होटल तो नहीं गया?” “दुनिया में बहुत बड़े-बड़े लोग हैं। पर आप जानते हैं, मेरे लिए सबसे बड़े कौन हैं ? एक हमारा दूधवाला, दूसरा किराने वाला। दोनों हमें बेझिझक उधार देते रहे। उस समय भी जब पुराने दोस्त तक मुँह मोड़ लेते थे कि कहीं हम उनसे पैसा न माँग बैठें।

” बात ज़रा खली। कितना अशिष्ट आदमी है। अतिथि से उधार लेने की इस तरह भूमिका बना रहा है। फिर इधर-उधर देखा। भोजन के कोई आसार नहीं। “आपके खाने का वक्त हो रहा है। लड़के से मैं कह गया था। वह न मालूम कहाँ चला गया है। हाँ, वह क्रिकेट मैच देखने गया था। मगर अब तक उसे वापस आ जाना चाहिए था। आ जाएगा।” मैं क्या कहा? कहा, “शाम को मैं खाना-वाना नहीं खाता। आपने बुलाया था, इसलिए ……………” भूख के बावजूद मैंने उन्हें तसल्ली देने की कोशिश की।

वे बतियाते जा रहे थे। उन लेखों की कतरनें दिखाईं जो दस वर्ष पहले लिखे थे। फिर वह ढेर जो लिखा तो था, पर न किसी संपादक ने स्वीकृत किया, न प्रकाशक ने। शर्मा निश्चित बैठे अपनी राम कहानी सुना रहे थे। जिंदगी भार हो जाती है तो अनुभव कड़वे ही रह जाते हैं। भूख लगी हो तो कड़वी बातें अच्छी नहीं लगती। “खाना-वाना हो गया?” उन्होंने पूछा। मैं सोच नहीं पा रहा था कि क्या कहूँ। शर्मा ने कहा, “शाम को ये खाते ही नहीं?” गाड़ी आ गई तो मैं विदा लेकर चला। अगले स्टेशन पर खाना खाया।

किसी से कुछ नहीं कहा। कुछ दिन बाद, शर्मा के लड़के की चिट्ठी आई। “मैं आपके नाम से परिचित हूँ। पिता जी आपका जिक्र करते रहते हैं। आपसे क्षमा चाहता हूँ। आप सहृदय हैं, हमारी विवशता समझ सकते हैं पिता जी. स्वभाव से लाचार हैं। मित्रों की आवभगत करना चाहते हैं, पर साधन हैं नहीं।” “आठ साल की लंबी बेरोज़गारी। कहीं कोई आय नहीं। इतनी ठोकरें खाई कि असलियत समझने की शक्ति ही न रही। महीने का अंतिम सप्ताह। घर में खाना नहीं और पिता जी आपको बुला लाए।

मैं क्या करता? कहाँ से लाता? हम दोनों के गुज़ारे के लिए बहन थोड़ा-बहुत पैसा भेजती है। पिछला कर्ज चुकाती है। नहीं जानता कि लड़की के पास से गुज़ारे के लिए आए पैसे मित्रों की खातिरदारी में खर्चने का पिता जी को क्या अधिकार है? अधिकार हो या न हो, हमारी वजह से आपको असुविधा हुई, अपमान हुआ। आप संपन्न हैं। भूख तो आपने अगले स्टेशन पर मिटा ही ली होगी। आशा करता हूँ कि यह पत्र पढ़कर अपमान की झंझलाहट भी जाती रहेगी।” पत्र पढ़कर मैं स्तब्ध था। लगता था मेरी आँखों के सामने शर्मा ज़ोर से खिलखिलाकर हंस रहे हैं और उनकी आँखों से आँसू टपक रहे हैं।

प्रश्नः

  1. “जाने क्या-क्या हो गया था इस बीच” का उत्तर पाठ के आधार पर दो।
  2. निम्नांकित वाक्य किसने कहा, क्यों कहा? “कभी हम किस्से लिखते थे लेकिन अब खुद किस्सा हो गए।”
  3. मुश्किलों पर हँसना बेहतर कैसे है?
  4. हर एक माता-पिता की अपने बच्चों के लिए क्या अभिलाषा होती है? शर्माजी अपनी वह अभिलाषा पूरी क्यों नहीं कर सके?
  5. शर्मा जी के कहे और अनकहे दुखड़े वर्णित करो।
  6. शर्मा जी ने संस्था और परिवार में से परिवार को क्यों चुना?
  7. लेखक ने शर्माजी के प्रत्येक हास्य पर क्या-क्या कहकर टिप्पणी की है ?
  8. बातचीत के किन मोड़ों पर लेखक को लगा कि शर्मा अब पैसे माँगेगा और उसने उन मोड़ों पर क्या कुछ किया?
  9. शर्मा जी के लड़के ने लेखक को अपने पत्र में क्या लिखा था और उस पर लेखक की क्या प्रतिक्रिया हुई?

परियोजना कार्य-2

विषय

मनुष्य एक ऊँचे दर्जे का सामाजिक जीव है। उसके समय का एक बहुत बड़ा भाग अपने भाई-बंधुओं के साथ मिल बैठने और उनके कामकाज में थोड़ा बहुत हाथ बटाने में व्यतीत होता है। कभी-कभी वह संसार की भाग-दौड़ से तंग आकर थोड़े समय के लिए किसी छोटे-मोटे शगल द्वारा अपना मनोविनोद भी करना चाहता है। वास्तव में कोई शगल पाल लेना भी मनुष्य की खुराक है। वैसे तो इस संसार में शगलों का कोई ठौर-ठिकाना नहीं। पतंगबाजी और बटेरबाजी जैसी तमाशबीनियों से लेकर चित्रकला, संगीतकला, नृत्यकला आदि जो भी छोटी-बड़ी कलाएँ दिखाई देती हैं, वे सब शगलबाजी का ही दूसरा रूप हैं।

यह अलग बात है कि प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार इनमें से कोई-न-कोई शगल चुन लेता है। परंतु अब तो ज़माने की आबोहवा इतनी बदल गई है कि ये सब शगल निहायत पुराने हो गये हैं। आजकल तो एक ही शगल है जो शेष सबसे बाज़ी ले गया है। आप पूछेगे तो सुन लीजिए, इसको कहते हैं-चमचागिरी करना। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि चमचागिरी का रिवाज मानव-सभ्यता के आदिकाल से चला आ रहा है। इतिहास के किसी भी युग में इस प्रकार की कोई मिसाल नहीं मिलती जब किसी राजा-महाराजा, सामन्त-नवाब अथवा वज़ीर-अमीर ने चमचागिरी के विरोध में कोई अध्यादेश जारी किया हो।

इसके विपरीत वस्तुस्थिति यह है कि प्रत्येक सरकार अपने दस्तूर के अनुसार चमचागिरी को लोकप्रिय बनाने में पूर्ण सहयोग एवं प्रोत्साहन देती रही है। ज़रा ब्रिटिश साम्राज्य की नीति का ही जायज़ा लीजिए। उन दिनों भी चमचों को रायसाहिब, रायबहादुर, खानसाहिब, खानबहादुर, सरदारसाहिब, सरदारबहादुर जैसी प्रसिद्ध उपाधियों से सम्मानित एवं विभूषित किया जाता था। राज-दरबारों तथा सभा-सोसाइटियों में सर्वत्र उनका ही बोलबाला था। यह बात अलग है कि प्राचीन काल में इनको चमचे कहने की बजाय भिन्न-भिन्न नामों से स्मरण किया जाता था।

चारण, भाट, विदूषक, बन्दीजन, राय, मरासी आदि के रूप में इनकी बिरादरी बहुत विशाल थी। परन्तु यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो आपको विश्वास हो जायेगा कि ये सब-के-सब महानुभाव एक ही थैली के चट्टे-बट्टे थे। इनके कारनामों एवं उपलब्धियों में कोई खास अंतर नहीं था। उन दिनों चमचों के अनेक नामों की तरह चमचागिरी को भी अनेक नामों से पुकारा जाता था। जैसे मक्खन लगाना, तलवे चाटना, चिलम भरना उँगलियों पर नचाना, हाँ-में-हाँ मिलाना, चापलूसी करना आदि। परंतु आजकल चमचागिरी शब्द का प्रयोग सबसे बाज़ी मार चुका है।

वास्तव में चमचा शब्द जहाँ आधुनिक बोध का समर्थक है, वहाँ इसमें लघुता का भाव भी कूट-कूट कर भरा है। कुछ लोगों का विचार है कि हरिनाम की तरह चमचों के भी सहस्त्र नाम हो सकते हैं। बेचारों को हर नई महफिल के आगे नया स्वाँग भरना पड़ता है, इसलिए इनका कोई एक स्थायी नाम नहीं हो सकता। इनको गंगा गए तो गंगा दास, जमुना गए तो जमुना दास कहना चाहिए। संसार में हर छोटे-बड़े इनसान को किसी-न-किसी रूप में चमचागिरी की नीति का पालन करना पड़ता है। जिससे उसके जीवन की गाड़ी मंज़िल की ओर बढ़ सके, अन्यथा उसको कदम-कदम पर ब्रेक लग जाती है।

कई बार मिल्क बूथ अथवा राशन की दुकान पर एक फलाँग लंबी कतार में प्रतीक्षा करते हुए आपको नानी याद आ जाती है। इस समय इन नामुराद मुसीबतों से बचने के लिए कोई राह नहीं सूझती, मगर क्या आप जानते हैं कि इस समय कबीर की इस सँकरी प्रेमगली को पार करने के लिए कौन-सा मंत्र काम आता है? यदि आपने चमचागिरी का थोड़ा-सा प्रशिक्षण भी हासिल किया है तो आपका तीरतुक्का चल जाएगा और आप सभी ज़रूरी राशन-सामग्री संभाल कर छलांगें लगाते घर पहुंच जायेंगे और अपनी निराश बीवी को प्रसन्न कर सकेंगे, अन्यथा उस बेचारी को मन मसोस कर रह जाना पड़ेगा और आपकी अनशन करने की नौबत आ जायेगी। मैं अब आपको एक पते की बात बताने चला हूँ।

यदि आप किसी दफ्तर में काम करते हैं। समय पर तरक्की चाहते हैं। कभी-कभी छुट्टी भी मारना चाहते हैं। कड़ी मेहनत करके अपनी जान जोखिम में डालना नहीं चाहते तो इन हालात में कभी-कभी अपने अफसर की कोठी के चक्कर काटने में कोई बुराई नहीं। यदि अफसर आपके आने का कारण पूछे तो कह दीजिए कि दर्शनों के लिए आया हूँ। यदि अफसर चिढ़ कर कह उठे कि मैं कोई मंदिर हूँ, तो घबराने की आवश्यकता नहीं। विनीत भाव से प्रार्थना कीजिए कि हमारे लिए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा सब कुछ सरकार ही हैं।

परंतु मेरा विचार है इतना गिड़गिड़ाने पर भी साहिब आपको क्षमा नहीं करेगा। वह कड़क कर कहेगा कि मैंने हज़ार बार कहा है कि मैं चमचागिरी पसंद नहीं करता। वास्तव में हर अफसर का यह दस्तूर है कि ऐसे अवसर पर वह एक ही वाक्य का प्रयोग करता है कि मैं चमचागिरी पसंद नहीं करता। परंतु उसकी कथनी और करनी में आकाश-पाताल का अंतर होता है। जो अफसरों की इस अदा को भाँप लेते हैं, वे अवसर मिलने पर कभी नहीं चूकते और तुरंत यह ऐलान कर देते हैं कि सरकार तो चमचों से सौ कोस दूर भागती है।

बस आपके इतना कहने की देर है, फिर आपको कोई नहीं पूछ सकता। फिर चाहे आप दफ़्तर में बैठकर कैरम बोर्ड खेलें या लात-पर-लात रखकर उपन्यास पढ़ें, यह आपकी इच्छा है। बीरबल का नाम तो आपने खूब सुना होगा। आपकी गिनती अकबरी दरबार के नवरत्नों में होती थी। अकबर की इन पर विशेष कृपा थी और वह इन्हें हर समय एक अंतरंग की तरह अपने अंग-संग रखता था। इसमें संदेह नहीं कि बीरबल अपने समय का एक बहुत बड़ा पदाधिकारी था, परंतु यदि आप गंभीरता से विचार करें तो आप सहज ही इस परिणाम पर पहुँच जायेंगे कि उसकी तरक्की का केवल एक ही रहस्य था बादशाह की चमचागिरी करना, जिसने उसको बादशाह की मूंछ का बाल बना दिया था।

पुराने बुजुर्ग बताते हैं कि एक बार अकबर और बीरबल सैर करने निकल गए। सैर करते हुए बादशाह की नज़र बैंगनों के एक खेत पर जा टिकी। हरे-भरे, कोमल पौधों के साथ लटकते हुए बैंगनों की शोभा देखकर बादशाह से न रहा गया और कहने लगा – बीरबल! ज़रा देखो तो बैंगनों की क्या अजब बहार है ? बीरबल जैसा काइयाँ (धूर्त) वज़ीर भला इस अवसर से कब चूकने वाला था। उसने बादशाह का मूड देखकर तत्काल बैंगन की बड़ाई शुरू कर दी। उसने अपनी चमचागिरी की कला के प्रभाव से बैंगन को संसार की तमाम सब्जियों का सिरताज सिद्ध कर दिया।

यहाँ तक कि बैंगन के श्याम वर्ण की महिमा का बखान करते हुए उसे कृष्ण महाराज के रूप की उपमा सूझने लगी। बैंगन के सिर पर फैले हुए डंठल में उसे ताज की अनुभूति होने लगी। बादशाह बीरबल की अक्ल की दाद देने लगे और उसे विश्वास हो गया कि बैंगन की बढ़िया सब्जी भाग्यवानों को ही नसीब होती है। बादशाह पर बीरबल के भाषण का कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि बादशाह उस दिन से नाना प्रकार की रसभीनी तरकारियों को छोड़ बैंगनों का ही जी भर कर सेवन करने लगा।

परिणामस्वरूप बादशाह भयानक पेचिश का शिकार हो गया और इसका सारा दोष बैंगनों के ही सिर थोपने लगा। इस नाजुक स्थिति में बीरबल को भी अपना नमक हलाल करने की आवश्यकता महसूस हुई और वह भी बैंगनों पर बुरी तरह से बरस पड़ा और बोला-इस काले कलूटे पर तो पहले ही विधाता का कोप है। यह निर्दोष होता तो खुदा के कहर से चमगादड़ की तरह उल्टा क्यों लटकता? सचमुच खुदा मूर्ख नहीं है, व मुँह देख-देख कर ही चपत लगाता है? बादशाह को बीरबल की यह गिरगिट जैसी नीति पसन्द न आई और वह कहने लगा-बीरबल! तुम बेपेंदे के लोटे हो।

कभी तो अपनी बात पर कायम रहा करो। अब बीरबल को एक भयंकर अग्नि-परीक्षा का सामना करना पड़ गया। परंतु बीरबल मैदान से भागने वाला व्यक्ति न था। उसने चमचागिरी में एम.ए. की डिगरी हासिल कर रखी थी। झट बोल उठा-बादशाह सलामत। बंदा बादशाह का नौकर है, बैंगन का नहीं। सरकार को बीमार करके भला यह मूंजी कैसे बन सकता है? फिर क्या था, बादशाह के क्रोध का पारा जो सौ डिग्री छू रहा था तत्काल सामान्य हो गया और बीरबल महोदय फिर अपनी चमचागिरी की बंशी बनाने लगे।

प्रश्नः

  1. संसार में कितने प्रकार के शगल प्रचलित हैं ?
  2. ब्रिटिश साम्राज्य में चमचों को किन-किन नामों से विभूषित किया जाता था?
  3. बीरबल को काइयां वजीर क्यों कहा गया है?
  4. बे पेंदे के लोटे से लेखक का क्या तात्पर्य है?
  5. बीरबल को अग्नि-परीक्षा का सामना कब करना पड़ा?
  6. इस पाठ में चमचागिरी के लिए लेखक ने किन-किन मुहावरों का प्रयोग किया है ?
  7. हमारे दैनिक जीवन में चमचागिरी का क्या महत्त्व है?

परियोजना कार्य-3

फलों का राजा आम हमारा सर्वप्रिय फल है। आज ही नहीं सदियों से आम का हमारे जीवन से घनिष्ठ संबंध रहा है। आम का इतिहास लगभग उतना ही पुराना है, जितना कि भारत का इतिहास। अनेक इतिहासकारों और कवियों ने आम को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। वैशाली की प्रसिद्ध नगरवधू का नाम आम्रपाली था। महाकवि कालिदास ने भी मेघदूत में आम्रकूट नामक पर्वत का सुंदर वर्णन किया है। महर्षि वाल्मीकि जी भी अपनी रामायण में आम के बागों की सुंदर छटा का वर्णन करते नहीं अघाते।

अजन्ता तथा एलोरा की गुफाओं में बनी मूर्तियों पर आम के वृक्षों की सुंदरता ने महत्त्वपूर्ण स्थान पा लिया है। बौद्ध यात्री फाह्यान और यून सांग भी अपनी यात्रा का वर्णन करते हुए भारतीय जीवन में आम के महत्व का वर्णन करने से नहीं चूके। इससे पता चलता है कि भारतीय जीवन और आम का शुरू से घनिष्ठ संपर्क रहा है। हिंदू आम को एक पवित्र वृक्ष मानते हैं। विवाह-शादियों तथा अन्य खुशी के अवसरों पर आम के पत्तों से सजावट की जाती है। आम के पत्ते गुच्छियों में बाँधकर मुख्य द्वार पर लटकाए जाते हैं; उसे ‘बंदनवार’ कहा जाता है।

यज्ञ आदि करने के लिए आम की लकड़ी की समिधा जलाना शुभ माना जाता है। आम का केवल काल्पनिक महत्त्व ही नहीं, यह तो वस्तुत: बहुत ही काम का फल है। पके हुए आम को खाना स्वास्थ्यवर्धक है। क्या अमीर और क्या गरीब, क्या बच्चा और क्या बूढ़ा, क्या स्त्री और क्या पुरुष सभी आम को बड़े चाव से खाते हैं, चूसते हैं। वस्तुतः आम एक सुलभ फल है। आम से बहुत-सी वस्तुएँ तैयार की जाती हैं। इससे तैयार किया गया अचार, मुरब्बा, स्कवैश, जैली और चटनी बहुत स्वादिष्ट होते हैं।

आजकल नगर के हर बाज़ार में आम-रस की धूम है। आम के रस को दूध में मिलाकर पी लिया जाता है। आम के गूदे को दूध में घोलकर पेय तैयार किया जाता है। उसे “मैंगोशेक” कहा जाता है। बरफ़ डालकर तैयार किया गया यह ठंडा पेय स्वादिष्ट तो है ही, गरमियों में गरमी से बचाव का बढ़िया साधन भी है। इसके गूदे या रेशों को आटे में मिलाकर बढ़िया बिस्कुट तैयार किए जाते हैं। आम में अनेक रोगनाशक गुण भी हैं। पके हुए आम खाने से मूत्र बाधा दूर हो जाती है।

आम की जलती लकड़ी से निकलने वाला धुआँ हिचकी और गले की पीड़ा दूर करने के लिए उपयोगी माना जाता है। दमा और दस्त जैसे रोगों के उपचार के लिए आम के गूदे से बनी दवाई का प्रयोग किया जाता है। आम के रस में चीनी मिलाकर बनाई गई रसदार सब्जी हैजे और प्लेग के रोगियों के लिए स्वास्थ्यदायक होती है। आम के वृक्ष से निकलने वाली गोंद को नींबू के रस में मिलाकर खुजली और चर्म रोग से ग्रस्त लोगों का उपचार किया जाता है। आम के पत्तों से प्राप्त रस रूपी तेल अनेक आयुर्वेदिक दवाइयों में प्रयुक्त होता है। आम अपने विशेष गुण के कारण भारत के लगभग हरेक कोने में पैदा हो जाता है।

समुद्र तल से 5000 फुट तक ऊँचे स्थानों पर यह शीघ्र पनपता है। इस पर परिवर्तनशील तापमान का भी कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। मिट्टी कैसी भी हो, आम के वृक्ष में सभी प्रकार की मिट्टी में पैदा होने की क्षमता है। वर्षा ऋतु में इसके पनपने की गति अधिक होती है। जब फूल लगने व फल पकने का समय होता है, उस समय अत्यधिक धुंध भी इसके लिए हानिकारक है। अतः ऐसे क्षेत्रों में, जहाँ अधिक वर्षा होती हो या दिसंबर में धुंध रहती हो, वहाँ आम का उपजाना लाभदायक नहीं रहता। उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, बिहार और पंजाब आम की उपज के मुख्य प्रदेश हैं।

भारत में लगभग 300 किस्मों के आमों की पैदावार होती है। इनमें से 20 किस्मों का प्रमुख स्थान प्राप्त है। महाराष्ट्र, गुजरात व गोवा में उत्पन्न होने वाली आलफौंस किस्म तथा दक्षिण भारत में पैदा होने वाली प्रसिद्ध किस्में लंगड़ा और दुसहरी हैं। दुसहरी आम खाने में बहुत मीठा और स्वादिष्ट होता है। इसीलिए विदेशों में भी इसकी काफ़ी माँग है। कुछ देश इसे अत्यधिक मीठेपन से उकता कर आलफौंस की ओर झुक रहे हैं। भारत आम की उपज वाला प्रमुख देश है। भारत आम की उपज को और उन्नत करने के लिए विशेष प्रयत्न कर रहा है। लखनऊ में केन्द्रीय आम-अनुसंधान केन्द्र खोला गया है।

संसार के कुल आम उत्पादन का 80 प्रतिशत भाग भारत में स्थित है, किन्तु संसार के निर्यात होने वाले कुछ आम का केवल 10 प्रतिशत भाग ही भारत से निर्यात होता है। वास्तव में अब फिलिपाइन, थाईलैण्ड, बर्मा, मिस्र, श्रीलंका, दक्षिणी अफ्रीका आदि अनेक देश आमों को उपजाने में रुचि ले रहे हैं। वैज्ञानिक सूझ-बूझ के आधार पर उन्होंने इनमें काफ़ी सफलता भी प्राप्त कर ली है। अब वे अपनी आवश्यकता के लिए स्वयं ही आम उगा रहे हैं। भारत का यह सर्वप्रिय फल अब विश्व भर में प्रसिद्धि पा चुका है। वह दिन दूर नहीं, जब आम संसार का एक आम फल बन जाएगा।

प्रश्नः

  1. हमारा सर्वप्रिय फल कौन-सा है ?
  2. आम को पवित्र वृक्ष किस धर्म के लोग मानते हैं ?
  3. आम के वृक्ष में किस प्रकार की मिट्टी में पैदा होने की क्षमता है?
  4. बंदर वार किसे कहते हैं ? इसका उपयोग कहाँ होता है ?
  5. आम का भारतीय जीवन से घनिष्ठ संपर्क रहा है। स्पष्ट करें?
  6. आम से कौन-कौन-सी स्वादिष्ट वस्तुएँ तैयार की जाती हैं?
  7. आम के गुणों का वर्णन करें।

परियोजना कार्य-4

लोग धर्म के नाम पर बड़े-बड़े उत्पात कर डालते हैं, परंतु यह उनका अज्ञान है। वास्तव में धर्म वह है जो धारण करे, जो हमें पतन के गर्त में गिरने से संभाले। प्रस्तुत पाठ में पूज्य महात्मा गांधी ने धर्म की सुंदर व्याख्या की है। विविध धर्म एक ही जगह पहँचने वाले अलग-अलग रास्ते हैं। एक ही जगह पहुँचने के लिए हम अलग-अलग रास्ते से चलें तो इसमें दुख का कोई कारण नहीं है। सच पूछो तो जितने मनुष्य हैं, उतने ही धर्म भी हैं। हमें सभी धर्मों के प्रति समभाव रखना चाहिए। इससे अपने धर्म के पति उदासीनता आती हो, ऐसी बात नहीं, बल्कि अपने धर्म पर जो प्रेम है, उसकी अंधता मिटती है।

इस तरह वह प्रेम ज्ञानमय और ज्यादा सात्त्विक तथा निर्मल बनता है। मैं इस विश्वास से सहमत नहीं हूँ कि पृथ्वी पर एक धर्म हो सकता है या होगा। इसलिए मैं विविध धर्मों में पाया जानेवाला तत्व खोजने की ओर इस बात को पैदा करने की कि विविध धर्मावलंबी एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता का भाव रखें, कोशिश कर रहा हूँ। मेरी संमति है कि संसार के धर्म-ग्रंथों को सहानुभूतिपूर्वक पढ़ना प्रत्येक सभ्य पुरुष और स्त्री का कर्तव्य है। अगर हमें दूसरे धर्मों का वैसा आदर करना है, जैसा हम उनसे अपने धर्म का कराना चाहते हैं तो संसार के सभी धर्मों का आदरपूर्वक अध्ययन करना हमारा एक पवित्र कार्य हो जाता है।

दूसरे धर्मों के आदरपूर्ण अध्ययन से हिंदू धर्म-ग्रंथों के प्रति मेरी श्रद्धा कम नहीं हुई। सच तो यह है कि हिंदू-शास्त्रों की मेरी समझ पर उनकी गहरी छाप पड़ी है। उन्होंने मेरी जीवन-दृष्टि को विशाल बनाया है। सत्य के अनेक रूप होते हैं, इस सिद्धांत को मैं बहुत पसंद करता हूँ। इसी सिद्धांत ने मुझे एक मुसलमान को उसके अपने दृष्टिकोण से और ईसाई को उसके स्वयं के दृष्टिकोण से समझना सिखाया है। जिन सात अंधों ने हाथी को अलग-अलग व सात तरह से वर्णन किया, वे सब अपनी दृष्टि से ठीक थे।

एक-दूसरे की दृष्टि से सब गलत थे और जो आदमी हाथी को जानता था, उसकी दृष्टि से सही भी थे और गलत भी थे। जब तक अलग-अलग धर्म मौजूद हैं, तब तक प्रत्येक धर्म को किसी विशेष बाहय चिहन की आवश्यकता हो सकती है। लेकिन जब बाह्य चिह्न केवल आडंबर बन जाते हैं अथवा अपने धर्म को दूसरे धर्मों से अलग बताने के काम आते हैं तब वे त्याज्य हो जाते हैं। धर्मोपदेश का उद्देश्य यह होना चाहिए कि वह एक हिंदू को बहुत अच्छा हिंदू, मुसलमान को बहुत अच्छा मुसलमान और एक ईसान को अधिक अच्छा ईसाई बनाने में मदद करे।

दूसरों के लिए हमारी यह प्रार्थना नहीं होनी चाहिये-ईश्वर, तू उन्हें वही प्रकाश दे जो तूने मुझे दिया है, बल्कि यह होनी चाहिए-तू उन्हें वह सारा प्रकाश दे जिसकी उन्हें अपने सर्वोच्च विकास के लिए आवश्यकता है। एक ऐसी रहस्यमयी शक्ति है जो सर्वत्र व्याप्त है। मैं उसे अनुभव करता हूँ, यद्यपि देखता नहीं हूँ। यह अदृश्य शक्ति अपना अनुभव तो कराती है, परंतु उसका कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता, क्योंकि जिन ऋतुओं का मुझे अपनी इंद्रियों द्वारा ज्ञान होता है, उन सबसे वह बहुत भिन्न है।

मैं यह ज़रूर अनुभव करता हूँ कि जब मेरे चारों ओर हर चीज़ हमेशा बदलती है, नष्ट होती रहती है, तब इन परिवर्तनों के पीछे , कोई चेतन शक्ति ज़रूर है जो बदलती नहीं है, जो सबको धारण किए हुए है, जो सृजन करती है, संहार करती है और नया सृजन करती है। यह जीवनदायी शक्ति या सत्ता ही ईश्वर है, और चूँकि केवल इंद्रियों द्वारा दिखाई देने वाली कोई भी चीज़ न तो स्थायी है और न हो सकती है, इसलिए एकमात्र ईश्वर का ही अंतिम अस्तित्व है।

यह शक्ति कल्याणकारी है या अकल्याणकारी? मैं देखता हूँ कि यह सर्वथा कल्याणकारी है, क्योंकि मुझे दिखाई देता है कि मृत्यु के बीच जीवन कायम रहता है, असत्य के बीच सत्य टिका रहता है और अंधकार के बीच प्रकाश स्थिर रहता है। इससे मुझे पता चलता है कि ईश्वर जीवन है, सत्य है और प्रकाश है। वही प्रेम है। वही परम मंगल है।

प्रश्नः

  1. लोग किस चीज़ के नाम पर बडे-बडे उत्पात करते हैं?
  2. धर्मोपदेशकों का क्या उद्देश्य होना चाहिए?
  3. कौन-सी शक्ति सृजन और संहार करती है?
  4. हमें सब धर्मों के प्रति कैसे भाव रखने चाहिए?
  5. गांधी जी ईश्वरीय शक्ति को कल्याणकारी क्यों मानते हैं?
  6. गांधी जी के कर्म विषयक विचारों को अपनी भाषा में लिखें।
  7. ईश्वर के अस्तित्व को इंद्रियों से अनुभव क्यों नहीं किया जा सकता?

परियोजना कार्य-5

सदाचार का अर्थ है-अच्छा, नेक व उत्तम व्यवहार; अथवा जो काम सज्जन करते हैं, उन कामों को करना ही सदाचार है। सदाचार से मानव में अनेक गुण-नम्रता, सुशीलता, बड़ों का आदर करना, सबसे प्रेम करना, दीनों के प्रति दया, नैतिकता और सत्यनिष्ठा आते हैं। सदाचारी मनुष्य आदर्श नागरिक होती है। सबकी आँखों का तारा होता है। वह जाति-संप्रदाय के भेद-भाव को समाप्त करता है, ईर्ष्या द्वेष से ऊपर उठता है। मानव मात्र से प्रेम करती है-उसका जीवन कृतार्थ हो जाता है। उसके कारण समाज में भी व्यवस्था आती है, चारों ओर शांति होती है।

पशु-पक्षी अपनी शारीरिक संरचना के अनुरूप काम करते हैं। वे अपनी प्रकृति से ऊपर नहीं उठ सकते। पर मानव केवल शारीरिक आवश्यकताओं के अनुरूप काम नहीं करता। उसमें बौद्धिक शक्ति है। वह सूझ-बूझ रखता है। अच्छाई-बुराई का निर्णय करता है। वह समझता है कि बड़ों का सत्कार, साथियों से प्रेम और दीनों की सहायता करने से प्रसन्नता मिलती है। ऐसी बातें अच्छी हैं, सत् हैं। इसके विपरीत दूसरों से लड़ना-झगड़ना, दीनों को सताना, माता-पिता का अनादर करना बुरा है, असत् है।

असत् को त्याग कर सत् को अपनाने की दृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिए। जिससे हम बुद्धि द्वारा निर्णीत सत्य को आचरण में ला सकें। इच्छा, ज्ञान और कर्म का पूरा मेल हो। तभी हम सदाचारी बन सकते हैं। सदाचार में दो शब्द हैं, सत् + आचार; अर्थात् सत् को जानना और उस पर आचरण करना। शास्त्रों से सत् को धर्म, तो सदाचार को परम-धर्म कहा गया है। गुरुओं ने भी सत् की अपेक्षा सच्चे आचरण को किया है। सदाचार का मुख्य गुण सत् है। यह सृष्टि और मानव-जीवन का आधार है। हमारी आस्था है, ‘सत्यमेव जयते नानृतम्’ अर्थात् सत्य की जीत होती है, झूठ की नहीं।

जो बात जिस प्रकार देखी या सुनी हो उसी प्रकार कहना तथा मुख से निकले हुए शब्दों पर दृढ़ रहना सत्य कहलाता है। सत्यवादी हरिश्चंद्र को कौन नहीं जानता, जिन्होंने अपना वचन निभाने के लिए अपना राजपाट छोड़ा; वे अपनी पत्नी और पुत्र से पृथक् हुए। श्मशान भूमि में नौकरी करने लगे। जब उनकी पत्नी शैव्या पुत्र रोहिताश्व का शव लेकर आई, तो उसे भी बिना कर लिए दाह संस्कार करने की अनुमति नहीं दी। बचपन में महात्मा गांधी इस कथा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने आजीवन सत्य का सहारा लिया और देश को स्वतंत्र कराया।

सामान्य रूप से बच्चा सत्य ही बोलता है, झूठ जानता ही नहीं। हम स्वार्थवश उसे झूठ बोलना सिखाते हैं अथवा वह डरकर झूठ बोलता है। यदि बालक कोई भूल कर बैठता है अथवा उससे कोई नुकसान हो जाता है तो प्यार से सही स्थिति जाननी चाहिए। झूठ बोलने का अवसर नहीं देना चाहिए। सत्यवादी बालक छल, कपट, हेराफेरी और दूसरे अपराधों को नहीं करता। वह सजग रहता है। वह निर्भय हो जाता है। सबका विश्वासपात्र बन जाता है। अहिंसा अर्थात् मन, वाणी और कर्म से दूसरों को कष्ट न पहुँचाना सदाचार का दूसरा महत्त्वपूर्ण गुण है। हिंसा का मूल कारण स्वभाव की निर्ममता, कठोरता और अहंभाव है।

हिंसक व्यक्ति अपने को महान और दूसरों को हीन समझता है। उनकी भावनाओं का आदर नहीं करता। इसी कारण उसका अपने मन वाणी और कर्मों पर नियंत्रण नहीं होता। वह बुरा सोचता है, गालियाँ निकालता है, मार-पीट करता है, आतंक मचाता है। पर सदाचारी मनुष्य सबको अपने जैसा समझता है, सबकी भावनाओं का आदर करता है। सबका हित सोचता है, मीठा बोलता है और सबका भला करता है। अहिंसा आत्मा की शक्ति है, जिसके आगे क्रूर और अत्याचारी व्यक्ति भी नतमस्तक हो जाता है।

वह अपनी भूल पर पछताता है और सही इंसान बन जाता है। अहिंसा से शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। पराए भी अपने हो जाते हैं। सदाचार का तीसरा महत्त्वपूर्ण गुण नम्रता है। यही असली विद्या है। ‘विद्या ददाति विनयं’। अर्थात् विद्या विनय देती है। विनयभाव से बालक सात्पात्र बनता है। व्यक्ति जितना नम्र होता है उतना ही महान होता है। बड़ों का अभिवादन और सत्कार करने से और उनकी आज्ञानुसार चलने से नम्रता का विकास होता है।

शास्त्रों का आदेश है, ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव’ अर्थात् माता-पिता और गुरु को देवता समझो। माता-पिता देवता हैं। क्योंकि वे हमें जीवन देते हैं, हमारा पालन-पोषण करते हैं। खून पसीना एक करके हमें पढ़ाते हैं और हमें अपने पांवों पर खड़ा करते हैं। गुरु हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाते हैं, वे हमें दूसरा जन्म देते हैं। इनका आदर करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। माता-पिता और गुरु की तरह समाज में बड़ों की सेवा करने, उन्हें प्रणाम करने से वे हमें उठा कर गले लगाते हैं।

हमें आशीर्वाद देते हैं, ‘स्वस्थ रहो’, ‘दीर्घायु हो’, ‘यशस्वी बनो’, ‘विद्वान् बनो।’ नम्रता सचमुच वरदान है। इससे हमारा व्यक्तित्व खिल उठता है। जिससे हम नम्रता से व्यवहार करते हैं, वह ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध को थूक देता है। विरोधाभाव भुला देता है। सदाचार का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण नैतिकता है। वर्तमान शिक्षा पद्धति में इस पर बल नहीं दिया जाता। आजकल बालक घर में रहते हैं, स्कूल में पढ़ते हैं। घर में सब सुविधाएँ प्राप्त हैं। दूरदर्शन, सिनेमा और पाश्चात्य संस्कृति ने जीवन के आदर्शों में परिवर्तन ला दिया है।

बाल्यावस्था और कुमारावस्था में मन कोमल होता है। प्रत्येक बात हृदय पर अंकित हो जाती है। बुरी बातों का प्रभाव और आकर्षण अच्छी बातों से कहीं अधिक और शीघ्र होता है। इसी तथ्य को दृष्टि में रखकर अपनी पुस्तक ‘भारत-भारती’ में मैथिलीशरण गुप्त ने नवयुवकों को चेतावनी दी थी, ‘यदि तुम न संभलोगे अभी, तो फिर न संभलोगे कभी।’ सबसे पहले बालकों की संगति का ध्यान रखना चाहिए। सदाचारी मित्रों, अच्छी कुटुंबियों और सज्जनों का संपर्क होना चाहिए। अवकाश का सदुपयोग होना चाहिए।

चरित्र निर्माण करने वाली पुस्तकों का अध्ययन, सामाजिक व ऐतिहासिक चल-चित्रों को देखना, खेलकूद व स्कूल की अन्य गतिविधियों में भाग लेने को प्रोत्साहित करना चाहिए। दैनिक कार्यक्रम निश्चित करें। प्रातः उठना, सैर अथवा हल्का व्यायाम करने, समय पर स्कूल जाने, घरेलू कामों में सहयोग देने, समय पर सोना तथा आलस्य को दूर रखने से जीवन में नियमितता आएगी। रहन-सहन में सरलता अपनाए, कृत्रिम श्रृंगार और चटकीले वस्त्रों से कुविचार उभरते हैं। खान-पान पौष्टिक और संतुलित हों।

ऐसे आचरण से क्रमशः चरित्र का निर्माण होगा। शरीर स्वस्थ व नीरोग होगा। मुखमंडल में कांति और प्रसन्नता होगी, अंगों में ओज तथा मन और बुद्धि में उत्साह होगा। चरित्र का महत्त्व इस उक्ति से स्पष्ट होता है, ‘धन हानि कोई हानि नहीं, स्वास्थ्य हानि कुछ हानि है, चरित्र हानि से सर्वनाश हो जाता है।’ इस तरह सदाचार में सत्यवादिता, प्रेमभावना, नम्रता, सुशीलता, नैतिकता आदि गुणों का समावेश है। जिसे अपनाने से मनुष्य अपना जीवन सार्थक करता है, मान-सम्मान पाता है, समाज व राष्ट्र का हित करता है।

प्रश्नः

  1. सदाचार से क्या तात्पर्य है?
  2. ‘सत्यमेव जयते’ का क्या अर्थ है?
  3. हिंसा का मूल कारण क्या है?
  4. जीवन में सदाचार का क्या महत्त्व है?
  5. सदाचारी व्यक्ति में क्या-क्या गुण होते हैं?
  6. बाल्यावस्था जीवन की प्रभावशाली अवस्था है, ऐसा क्यों?
  7. बालकों को किस तरह की संगति का ध्यान रखना चाहिए?
  8. जीवन में नियमितता कैसे लाई जा सकती है?

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