CBSE Class 11 Sanskrit कारक-उपपद विभक्तीनां प्रयोगाः

कारक – जिन शब्दों का क्रिया के साथ साक्षात् संबंध होता है, उन्हें कारक कहते हैं (क्रियान्वयित्वं कारकत्वम्)। क्रिया तथा द्रव्य का संयोग करने वाले शब्दों को कारक कहते हैं। जिन शब्दों का क्रिया से साक्षात् संबंध नहीं होता, वे कारक नहीं कहलाते, जैसे – सम्बन्ध।
कारक के भेद – कारक के छः भेद होते हैं
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विशेष – संबंध (Genetive) की गणना कारकों में नहीं होती, क्योंकि इसका क्रिया से सीधा संबंध नहीं होता। इसमें षष्ठी विभक्ति होती है और इसका चिह्न- का, के, की है।

विभक्ति – संज्ञा शब्दों के क्रिया के साथ संबंध को प्रकट करने के लिए जो प्रत्यय लगाया जाता है उसे कारक विभक्ति कहते हैं। सामान्यतः कर्ता कारक का बोध कराने के लिए प्रथमा विभक्ति, कर्म कारक का बोध कराने के लिए द्वितीया विभक्ति, करण कारक का बोध कराने के लिए तृतीया विभक्ति, सम्प्रदान कारक का बोध कराने के लिए चतुर्थी विभक्ति, अपादान कारक का बोध कराने के लिए पंचमी विभक्ति तथा अधिकरण कारक का बोध कराने के लिए सप्तमी विभक्ति प्रयुक्त होती है।

कारक तथा विभक्ति में अन्तर – कारक विभक्ति का पर्यायवाची शब्द नहीं है क्योंकि कर्तृवाच्य में तो कर्ता कारक में प्रथमा विभक्ति होती है परंतु कर्मवाच्य तथा भाववाच्य में कर्ता कारक में तृतीय विभक्ति होती है। इसी प्रकार कर्तृवाच्य में कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है, किंतु कर्मवाच्य में कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है।
षष्ठी विभक्ति – एक संज्ञा शब्द का दूसरे संज्ञा शब्द से संबंध बताने में षष्ठी विभक्ति होती है। प्रमुख रूप से ये चार संबंध हैं

(क) स्व-स्वामिभाव संबंध, जैसे – साधु का धन (साधोः धनम्)।
(ख) जन्य-जनकभाव संबंध, जैसे – पिता का पुत्र (पितुः पुत्रः)।
(ग) अवयवावयविभाव संबंध, जैसे – पशु का पैर (पशोः पादः)।
(घ) स्थान्यादेशभाव संबंध, जैसे – ब्रू के स्थान पर वच् (ब्रुवोः वचिः)।

सम्बोधन कारक – उपर्युक्त विभक्तियों के अतिरिक्त एक सम्बोधन कारक होता है जिनका अंतर्भाव प्रथमा विभक्ति में कर लिया जाता है। सम्बोधन, एकवचन में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के रूप में कहीं थोड़ा परिवर्तन हो जाता है, द्विवचन तथा बहुवचन के रूप पूर्णतया प्रथमा विभक्ति के समान चलते हैं।

उपपद विभक्ति – जो विभक्ति किसी पद विशेष (प्रायः अव्यय) के योग में आती है उसे उपपद विभक्ति कहते हैं। जैसे ‘सह’ के योग में तृतीया उपपद विभक्ति होती है।

कारक तथा उपपद विभक्ति – यदि कहीं कारक तथा उपपद विभक्ति दोनों भिन्न-भिन्न हों, तो वहाँ कारक विभक्ति को ही बलवान् मानकर उसका प्रयोग किया जाता है। जैसे ‘नमस्करोति’ क्रिया के कर्म में द्वितीया कारक विभक्ति का प्रयोग उचित है (नमस्करोति = नमः + करोति) भले ही नमः के योग में चतुर्थी उपपद विभक्ति का नियम रहता है।

उदाहरण – गुरुभ्यः नमः, गुरून् नमस्करोमि। प्रथम वाक्य में नम: के योग में गुरुभ्यः में चतुर्थी उपपद विभक्ति का प्रयोग उचित है किंतु द्वितीय वाक्य में नमस्करोति क्रिया के साथ कर्म (गुरून्) में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग उचित है।

प्रथमा विभक्ति
(Nominative Case)

1. किसी शब्द का नियत अर्थ बताने में, लिंग का बोध कराने में, परिमाण का ज्ञान कराने में, वचन मात्र के निर्देश में प्रथमा विभक्ति होती है।
(क) प्रातिपदिक का अर्थ बताने में-कृष्णः (कृष्ण), श्रीः (लक्ष्मी), ज्ञानम् (ज्ञान) शब्दों में नियत अर्थ बताने के लिए प्रथमा विभक्ति प्रयुक्त हुई है।
(ख) लिंग का बोध कराने में – तटः (पुल्लिङ्ग), तटी (स्त्रीलिङ्ग), तटम् (नपुंसकलिङ्ग) शब्द में प्रथम विभक्ति है।
(ग) परिमाण मात्र में – द्रोणो व्रीहिः (द्रोण भर चावल)। यहाँ द्रोणः प्रथमा विभक्ति है तथा यह व्रीहिः का विशेषण हो गया है।
(ग) वचन का ज्ञान कराने में-एकः (एकवचन), द्वौ (द्विवचन), बहवः (बहुवचन) शब्दों में प्रथमा विभक्ति है तथा विशिष्ट संख्या की सूचना भी मिलती है।

2. कर्तृवाच्य के कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे-‘अहम् गृहं गच्छामि’ वाक्य में गच्छामि क्रिया का कर्ता अहम् है।
3. कर्मवाच्य के कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे-‘रामेण पत्र लिख्यते’ में ‘पत्रम्’ में कर्म होने पर कर्मवाच्य के कारण प्रथमा विभक्ति है। (‘वाच्य-परिवर्तन’ में अन्य उदाहरण देखिए।)
4. सम्बोधन में-हे बालिकाः। अत्र आगच्छत। यहाँ ‘बालिका’ में प्रथमा विभक्ति है।

द्वितीया विभक्ति
(Accusative)

कर्मणि द्वितीया

1. वाक्य में प्रयुक्त शब्दों में से कर्ता क्रिया के द्वारा जिसको सबसे अधिक चाहता है उसे कर्म कहते हैं। उस पर क्रिया के व्यापार का फल पड़ता है। यदि वाक्य कर्तृवाक्य में हो तो कर्म कारक में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। जैसे –
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2. द्विकर्मक क्रिया में-वाक्य में मुख्य कर्म के साथ-साथ कहीं पर गौण या अकथित कर्म होता है। गौण या अकथित कर्म में भी द्वितीया विभक्ति होती है। गौण कर्म निम्न धातुओं में होते हैं-दुह्, याच्, पच्, दण्ड्, रुध्, प्रच्छ्, चि, ब्रू, शास्, जि, मथ्, मुष्, नी, ह, कृष्, वह।
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3. गत्यर्थक धातुएँ-गत्यर्थक धातुओं के साथ द्वितीया विभक्ति होती है। (चाहे शारीरिक कर्म हो, मानसिक कर्म हो या अन्य प्रकार की गति हो)
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4. अधि उपसर्ग पूर्वक शी, स्था तथा आस् धातुओं के योग में भी द्वितीया विभक्ति होती है।
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उपपद विभक्ति

5. कलावाचक तथा मार्गवाचक शब्द, यदि उनके बीच में किसी प्रकार की रुकावट न हो अर्थात् निरंतरता का बोध हो, कर्म के रूप में प्रयुक्त होते हैं। जैसे –
न ववर्ष वर्षाणि द्वादश देवः। (इंद्र अर्थात् बादल लगातार बारह साल तक नहीं बरसा।)
मासं गुडधानाः सन्ति। (गुड़ और धान लगातार एक मास के लिए है।)
क्रोशं कुटिला नदी। (कोस तक नदी लगातार टेढ़ी है।)

6. अकर्मक धातुओं के योग में देश, काल, भाव और गगन के योग्य मार्ग की कर्म संज्ञा होती है। जैसे
सः कुरून् स्वपिति। (वह कुरुदेश में सोता है।)
सः मासम् आस्ते। (वह महीने भर रहता है।)
विद्यालयः क्रोशम् अस्ति। (विद्यालय कोस भर है।)

7. अभि तथा नि उपसर्ग पूर्वक विश् धातु के आधार में कर्म कारक होता है। जैसे –
सः सन्मार्गम् अभिनिविशते। (वह सन्मार्ग पर आता है।)

8. उप, अनु, अधि, आ, उपसर्गपूर्वक वस् धातु के आधार की कर्म संज्ञा होती है। जैसे –
विश्वनाथ: काशीम् उपवसति, अनुवसति, अधिवसति, आवसति वा। (विश्वनाथ काशी में रहते हैं।)
हरिः वैकुण्ठम् उपवसति, अनुवसति, अधिवसति, आवसति वा। (हरि वैकुण्ठ में निवास करते हैं।)
विशेष – उपवास अर्थ में उपVवस् की कर्म संज्ञा नहीं होती। जैसे-सः वने उपवसति (वह वन में उपवास करता है)।

9. उभयतः (दोनों तरफ), सर्वतः (सब तरफ), धिक् (धिक्कार), उपर्युपरि (ऊपर), अधोऽधः (नीचे), अध्यधि (ऊपर-ऊपर), अभितः (दोनों तरफ), परितः (चारों तरफ), समया (पास), निकषा (पास), हा, प्रति, अन्तरा, अन्तरेण के योग में द्वितीया विभक्ति होती है।
(i) कृष्णम् उभयतः गोपाः सन्ति। (कृष्ण के दोनों तरफ ग्वाले हैं।)
(ii) उद्यानम् सर्वतः जलमेव दृश्यते। (बाग में सब तरफ जल-ही-जल दिखाई देता है।)
(iii) धिक् जाल्मान्। (दुष्टों को धिक्कार है।)
(iv) उपर्युपरि लोकं सः हरिः। (वह हरि संसार के ऊपर हैं।)
(v) अधोऽधः लोकं सः हरिः। (हरि संसार के नीचे है।)
(vi) अध्यधि लोकं सः। (वह संसार के ऊपर-ऊपर है।)
(vii) प्रयागम् अभितः नद्यौ स्तः। (प्रयाग के दोनों तरफ नदियाँ हैं।)
(viii) नगरं परितः नदी वहति। (गाँव के चारों तरफ नदी बहती है।)
(ix) ग्रामं समया नदी। (गाँव के पास नदी है।)
(x) निकषा लंकां समुद्रः अस्ति। (लंका के पास समुद्र है।)
(xi) हा नास्तिकम्। (नास्तिक पर अफसोस।)
(vii) अहं नगरगमनं प्रति उत्सुकोऽस्मि। (मैं नगर जाने के लिए उत्सुक हूँ।)
(xiii) अन्तरा त्वां मां च हरिः। (तुम्हारे और मेरे बीच हरि हैं।)
(xiv) परिश्रमम् अन्तरा सुखं नास्ति। (परिश्रम के बिना सुख नहीं।)
(xv) अन्तरेण हरिं न सुखम्। (हरि के बिना सुख नहीं।)

10. कर्मप्रवचनीय (अनु, अति, अभ, उप, परि) के योग में द्वितीया विभक्ति आती है, जैसे
(i) जपम् अनु प्रावर्षत्। (जप के बाद वर्षा हुई।)
(ii) अति देवान् कृष्णः। (कृष्ण देवों से बढ़कर है।)
(iii) भक्तो हरिम् अभि। (भक्त हरि के समीप है।)
(iv) उप हरिं सुराः। (देवता हरि से हीन हैं।)
(v) वृक्षं वृक्षं प्रति। (प्रत्येक वृक्ष पर।)
दीनं प्रति दयां कुरु। (दीन के प्रति दया कर।)
लक्ष्मीः हरिं प्रति, परि अनु वा। (लक्ष्मी हरि का अंश है।)
(vi) मालाकारः वृक्षं वृक्षं प्रति सिंचति परिसिंचति, वा। (माली प्रत्येक पेड़ को सींचता है।)

11. दक्षिणेन तथा उत्तरेण आदि ‘एनप्’ प्रत्ययान्त शब्दों के साथ द्वितीया व षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे –
(i) मम आगारं धनपतिगृहं (धनपतिगृहस्य वा) उत्तरेण अस्ति। (मेरा घर धनपति के घर के उत्तर में है।)
(ii) मम आगारं धनपतिगृहं (धनपतिगृहस्य वा) दक्षिणेन अस्ति। (मेरा घर धनपति के घर के दक्षिण में है।)

12. पृथक्, विना और नाना के योग में द्वितीया, तृतीया और पंचमी विभक्ति होती है। जैसे –
(i) परिश्रमं विना कुतो विद्या?
(ii) परिश्रमेण विना कुतो विद्या? परिश्रमाद् विना कुतो विद्या? (परिश्रम के बिना विद्या कहाँ?)
(iii) पृथक् रामेण रामं रामात् वा नास्ति कल्याणम्। (राम के पृथक् भला नहीं है।)
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तृतीया विभक्ति
(Instrumental)

करणे तृतीया :-

क्रिया की सिद्धि में अत्यंत उपकारक ही करण होता है अर्थात् जिसकी सहायता से कर्ता अपना कार्य पूर्ण करता है उसे करण कारक कहते हैं। यथा-सः लेखन्या पत्रं लिखति। यहाँ वह कलम (लेखनी) की सहायता से पत्र-लेखन का कार्य पूरा करता है, अतः लेखनी करण कारक हुआ है।

1. कर्तृवाच्य के करण कारक में तथा कर्मवाच्य के कर्ता कारक में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे –
कर्तृवाच्य – रामः बाली बाणेन हतवान्। (राम ने बाली को बाण से मारा।)
कर्मवाच्य – रामेण बाली बाणेन हतः। (राम द्वारा बाली बाण से मारा गया।)

2. शपथबोधक शब्दों के योग में जिस नाम से शपथ ली जाती है, वह तथा गत्यर्थक धातुओं के योग में वाहन या साधन करण कारक होता है तथा करण कारक में तृतीया विभक्ति होती है। यथा
अहं जीवितेन शपामि। (मैं प्राणों की शपथ लेता हूँ।)
राजा रथेन गच्छति। (राजा रथ से जाता है।)

3. समानता या सादृश्यवाचक शब्दों के साथ तृतीया विभक्ति होती है। जैसे –
सः त्यागे धनदेन समः। (वह त्याग में कुबेर के समान है।)
सः वीर्य विष्णुना सदृशः। (वह वीरता में विष्णु के समान है।)
लवस्य मुखं सीतायाः मुखचन्द्रेण संवदति। (लव का मुख सीता के मुखचन्द्र से मिलता है।)
स: स्वरेण रामभद्रम् अनुहरति। (वह स्वर में राम से मिलता है।)

4. वाहन, धारण के अर्थ की द्योतक धातुओं में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे
सः श्वानं स्कन्धेन वहति। (वह कुत्ते को कंधे पर उठाता है।)
सः आज्ञा शिरसा धारयति। (वह आज्ञा को सिर पर उठाता है।)
भर्तुः आज्ञा मूर्जा आदाय। (पति की आज्ञा सिर पर धारण कर।)

करण कारक के अन्य उदाहरण –

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काले (मोटे) अक्षरों में छपे पदों में तृतीया विभक्ति है क्योंकि कन्दुक, नेत्र, पाद आदि पदार्थ उन-उन वाक्यों में निर्दिष्ट क्रियाओं में साधनभूत हैं।

उपपद विभक्ति

5. अलम् के योग में तथा अपि, किम् कार्यम्, प्रयोजनम्, अर्थ, गुण, हीन इत्यादि शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे –
अलं विषादेन; अलम् अतिविस्तरेण; अलं क्रोधेन। (दुःख मत करो; बहुत विस्तार मत करो; क्रोध मत करो।)
ईश्वराणाम् तृणेन अपि कार्यं भवति। (धनिकों का तिनके से भी काम हो जाता है।)
किम् अतिश्रमेण? (अत्यधिक श्रम से क्या लाभ?)
तव ज्ञानेन प्रयोजनं नास्ति। (तुम्हारा ज्ञान से कोई प्रयोजन नहीं है।)
कोऽर्थः मूर्खेण पुत्रेण? (मूर्ख पुत्र से क्या लाभ?)
धर्मेण हीनः पशुभिः समानः। (धर्म से हीन पशु के समान है।)
तस्य धनेन किं यो न ददाति याचकाय। (उसके धन से क्या लाभ जो याचक को दान नहीं करता।)

6. फल प्राप्त होने पर कालवाची तथा मार्गवाची शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे
द्वादशभिः वर्षेः व्याकरणं श्रूयते। (बारह वर्षों में व्याकरण पढ़ा जाता है।)
सः सप्तभिः दिनैः नीरोगः जातः। (वह सात दिनों में नीरोग हुआ।)

7. सह, साकम्, सार्धम्, समम् के साथ अप्रधान में भी तृतीया विभक्ति होती है। जैसे –
नाहं मूर्खेण सह गच्छामि। (मैं मूर्ख के साथ नहीं जाता।)
त्वं वानरेण साकं धावसि। (तू बंदर के साथ दौड़ता है।)
सः पित्रा सार्धम् प्रतिनिवृत्तः। (वह पिता के साथ लौट गया।)
सा केन साकं विद्यालयं अगच्छत्। (वह किसके साथ विद्यालय गई?)
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8. जिस अंग से शरीर का विकार प्रसिद्ध हो, उस अंगवाचक पद के योग में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे –
अक्ष्णा काणः। (आँख से काना।) कर्णाभ्यां बधिरः। (कानों से बहरा।)
पादेन खञ्जः। (पाँव से लँगड़ा।) पृष्ठेन कुब्जः। (पीठ से कुबड़ा।)

9. जिस लक्षण के द्वारा कोई वस्तु या मनुष्य लक्षित हो, उस लक्षणबोधक शब्द में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे –
जटाभिः तापसः (जटाओं से तपस्वी)

10. पृथक्, विना, नाना के योग में द्वितीया, तृतीया व पंचमी विभक्ति होती है। जैसे –
सा रामेण विना पृथक्/नाना जीवितुं न शक्नोति। (वह राम के बिना जीवित नहीं रह सकती।)

चतुर्थी विभक्ति
(Dative)

सम्प्रदाने चतुर्थी

1. जिसको उद्दिष्ट करके कोई वस्तु दी जाए उसे सम्प्रदान कारक कहते हैं। सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे
विप्राय गां ददाति (ब्राह्मण को गाय देता है)। यहाँ ब्राह्मण के लिए गाय प्रदान करता है अत: ब्राह्मण सम्प्रदान कारक है तथा इसमें विप्र (ब्राह्मण) के योग में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग किया गया है।
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2. क्रिया के द्वारा जो वस्तु अभिप्रेत हो उसकी भी सम्प्रदान संज्ञा होती है। जैसे –
पत्ये शेते। (वह पति को अनुकूल करने के लिए सोती है।)

3. रुच् धातु के साथ प्रसन्न होने वालों में सम्प्रदान कारक होता है। जैसे –
हरये रोचते भक्तिः। (हरि को भक्ति अच्छी लगती है।)

4. धृ धातु (ऋणी होना, उधार लेना अर्थ में) के प्रयोग में ऋण देने वाले के योग में सम्प्रदान कारक होता है। जैसे –
त्वं मह्यं शतं धारयसि। (तुम्हें मेरे सौ रुपये देने हैं।)

5. ण्यन्त ‘स्पृह’ के योग में जो वस्तु चाही जाए उसमें भी चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे –
सः पुष्पेभ्यः स्पृह्यति। (वह पुष्पों की चाह करता है।)

6. क्रुध्, द्रुह्. इं; तथा असूय् धातुओं के योग में जिन पर क्रोध, ईर्ष्या आदि की जाए उनमें चतुर्थी विभक्ति होती है।
जैसे
सः जामात्रे क्रुध्यति। (वह दामाद पर क्रोध करता है।)

7. प्रति तथा आ पूर्वक श्रु धातु (प्रतिज्ञा अर्थ में) जिनसे प्रतिज्ञा की जाती है उनके योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे –
विप्राय गां प्रतिशृणोति। (वह ब्राह्मण से गाय की प्रतिज्ञा करता है।)

8. नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, वषट् के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे –
नमो राष्ट्रदेवाय। (राष्ट्र देव को नमन हो।) गुरवे नमः। (गुरु जी को प्रणाम।)
प्रजाभ्यः स्वस्ति। (प्रजाओं का कल्याण हो।) पितृभ्यः स्वधा। (पितरों को हवि का दान।)
इन्द्राय वषट्। (इन्द्र के लिए हवि का दान।)

9. पर्याप्ति अर्थ में अलम् व तदर्थ वाचक समर्थः, शक्तः, प्रभुः के प्रयोग में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे –
अलं मल्लो मल्लाय (यह पहलवान उस पहलवान के लिए काफी है)।

सम्प्रदान कारक के कुछ अन्य उदाहरण –

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उपर्युक्त वाक्यों में पुष्पेभ्यः, धनाय, निर्धनाय, नेत्राभ्याम्, कार्येभ्यः, गोपालाय, बालेभ्यः, स्वास्थ्याय, परोपकाराय

घृताय – पदों में सम्प्रदान कारक है क्योंकि इन वाक्यों में निर्दिष्ट क्रियाएँ पुष्प, धन, निर्धन, नेत्र, कार्य, गोपाल, बाल, स्वास्थ्य, परोपकार तथा घृत के लिए की जा रही है।

पञ्चमी विभक्ति
(Ablative)

अपादाने पञ्चमी

1. पृथक् होने के योग स्थिर (ध्रुव) पदार्थ की अपादान संज्ञा होती है तथा अपादन कारक में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे –
वृक्षात् पत्रं पतति। (वृक्ष से पत्ता गिरता है।)
सः ग्रामाद् आयाति। (वह गाँव से आता है।)
सः धावतोऽश्वात् पतति। (वह दौड़ते हुए घोड़े से गिरता है।)

2. जुगुप्सा, विराम तथा प्रमादवाची धातुओं के योग में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे –
सः पापात् जुगुप्सते। (वह पाप से घृणा करता है।)
सः धर्मात् प्रमाद्यति। (वह धर्म का प्रमा करता है।)
सः अध्ययनात् विरमति। (वह पढ़ने से रुकता है।)
धीराः न्याय्यात् पथः पदं न प्रविचलन्ति। (धीर न्यायमार्ग से पद भर विचलित नहीं होते।)

3. भय तथा रक्षा अर्थ वाली धातुओं के प्रयोग में जिससे भय या रक्षा हो उनके योग में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे –
सः सिंहात् बिभेति। (वह शेर से डरता है।) खलेभ्यः राजा त्रायते। (राजा दुष्टों से रक्षा करता है।)

4. नियमपूर्वक विद्या ग्रहण करने में पढ़ाने वाले के योग में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे –
सः अध्यापकात् संस्कृतं पठति। (वह अध्यापक से संस्कृत पढ़ता है।)
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5. जन् तथा प्र । भू धातुओं के कर्ता से हेतु में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे
कामात् क्रोधः अभिजायते। (काम से क्रोध पैदा होता है।)
गंगा हिमालयात् प्रभवति। (गंगा हिमालय से उत्पन्न होती है।)

6. दूर करना या हटाना अर्थ वाली धातुओं के योग में अत्यंत इष्ट कारक में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे
यवेभ्यो गां वारयति। (जौ के खेत से गाय को हटाता है।)।

7. अन्य (भिन्न, अतिरिक्त,) आरात् (समीप या दूर), इतर, (दूसरा), ऋते (विना), प्राक्, प्रत्यक् आदि अन्य दिशावाची शब्द बहिः, अनन्तर, परं, ऊर्ध्वम् आदि के योग में पंचमी विभक्ति होती है। जैस –
कृष्णात् अन्यः, भिन्नः, अतिरिक्तः, इतरः। (कृष्ण से भिन्न।)
वनात् आरात्। (वन के समीपा)
ऋते ज्ञानात् न मुक्तिः। (ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं।)
ग्रामात् पूर्वं उत्तरो वा। (गाँव के पूर्व या उत्तर में।)
प्राक् प्रत्यक् व ग्रामात्। (गाँव के पूर्व या पश्चिम में।)
दक्षिणाहि ग्रामात्। (गाँव के दक्षिण में।)
ग्रामाद् बहिः। (गाँव से बाहर।) सः शैशवात् प्रभृति चतुरः। (वह बचपन से ही चतुर है।)
भोजनाद् अनन्तरम्। (भोजन के बाद।) अस्मात् परम्। (इसके बाद।)
मुहूर्ताद् ऊर्ध्वम्। (क्षण भर के बाद।)

8. तरप, ईयसुन् तुलनात्मक प्रत्ययान्त शब्दों के योग में जिससे तुलना की जाए, उन शब्दों में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे –
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी (जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान् हैं)।

9. दूर और अन्तिक शब्दों में द्वितीया, तृतीया व पंचमी विभक्ति होती है। जैसे –
दूरम् (द्वितीया), दूरेण (तृतीया), दूरात् (पंचमी)-ग्रामस्य दूरं, दूरेण, दूरात् वा।

10. प्रतिनिधि व प्रतिदान (बदलना) के योग में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे –
प्रद्युम्नः कृष्णात् प्रति (प्रद्युम्न कृष्ण के प्रतिनिधि हैं)।
तिलेभ्यः प्रतियच्छति माषान् (वह तिलों से उड़द बदलता है)।

अपादान कारक के कुछ अन्य उदाहरण –
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इन वाक्यों में आकाश, भवन, विमान, ग्राम, गोमुख, गृह तथा उद्यान से पृथक् होने का भाव है, अत: इन शब्दों में पंचमी विभक्ति का प्रयोग है।

षष्ठी विभक्ति
(Genetive)

1. जहाँ अन्य विभक्तियों के प्रयोग का विधान नहीं है, उन शेष संबंधों को बताने के लिए षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। ये संबंध स्व-स्वामी, जन्य-जनक और कार्यकारण के रूप में हो सकते हैं। जैसे –
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2. (कर्तृकर्मणोः कृति, 2.3.65) – कृदन्त क्रिया का प्रयोग होने पर उस क्रिया के कर्ता अथवा कर्म में भी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। जैसे –
रघुवंशम् कालिदासस्य कृतिः (रचना) अस्ति। (रघुवंश कालिदास की कृति है।) इस वाक्य में /क धातु से ति (क्तिन) प्रत्यय जोड़कर भाववाचक संज्ञा ‘कृति’ बनाई गई है। यद्यपि कालिदास करने वाला (कर्ता) है किंतु ‘कृतिः’ शब्द के साथ होने पर षष्ठी विभक्ति होगी। इसी प्रकार ‘रचना’ या ‘सृष्टि’ शब्द भी कृदन्त भाववाचक संज्ञा है। इनके साथ भी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होगा।
वेदव्यास: वेदानाम् अध्येता आसीत् = वेदव्यास वेदों को पढ़ने वाला था। इस वाक्य में भी अधि Vइ (पढ़ना) क्रिया से तृच् (कृत) प्रत्यय जोड़कर शब्द बनाया गया है (अध्येता = पढ़ने वाला)। इसका कर्म ‘वेद’ है। उसमें षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया गया है।
मम इदं कर्तव्यमस्ति। देवस्य गीतं मनोज्ञं अस्ति। बालकानां रोदनं श्रुत्वा माता सचिन्ता भवति। ऋषयो यज्ञानां कर्तारः आसन्। विषस्य भोजनं घातकं भवति। रामः राक्षसानां घातकः आसीत्। परिश्रमेण विद्यायाः प्राप्तिः भवति। पुष्पाणां दर्शनं प्रसादकं भवति!
उपर्युक्त सभी वाक्यों में कृदंत शब्दों के साथ होने पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया गया है।

सप्तमी विभक्ति
(Locative)

1. अधिकरण कारक की परिभाषा – (आधारोऽधिकरणम् 2.4.45) कर्ता और कर्म से संबंध रखने वाली अर्थात् कर्तृवाच्य में कर्ता द्वारा और कर्मवाच्य में कर्म द्वारा की जाने वाली क्रिया के आधार को अधिकरण कहते हैं। जैसे –

अहम् पुस्तक काष्ठफलके निक्षिपामि। (मैं पुस्तक को मेज पर रखता हूँ।) इस वाक्य में ‘अहम्’ के द्वारा की जाने वाली ‘निक्षिपामि’ क्रिया का आधार ‘काष्ठफलक’ है अतः यह अधिकरण है।
मया पुस्तकं काष्ठफलके निक्षिप्यते – यहाँ पुस्तकं (प्रथमा विभक्ति) से संबद्ध ‘निक्षिप्यते’ क्रिया का आधार काष्ठफलक है। अतः अधिकरण है।

2. (सप्तम्यधिकरणे च, 2.3.36) – जिसकी अधिकरण संज्ञा होती है उसमें सप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। इसीलिए ऊपर के वाक्यों में ‘काष्ठफलके’ में सप्तमी विभक्ति है। सः प्रातःकाले उत्तिष्ठति उद्याने उपविश्य च पठति। इस वाक्य में सः कर्ता है। उसका संबंध ‘उत्तिष्ठति’ और ‘उपविश्य’ क्रियाओं से है। उठने का आधार (समय की दृष्टि से) प्रात:काल है और बैठने का आधार (स्थान की दृष्टि से) उद्यान है। अतः दोनों आधारों की अधिकरण संज्ञा होगी और उनमें सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होगा।

3. (आयुक्तकुशलाभ्यां चासेवायाम् 2.3.40) – तत्परता (आसेवा) अथवा नियुक्त अर्थ में आयुक्त और कुशल (निपुण) शब्दों के योग में षष्ठी और सप्तमी दोनों विभक्तियाँ की जाती हैं किंतु आसेवा (तत्परता) के न होने पर केवल सप्तमी ही होती है। जैसे –
CBSE Class 11 Sanskrit कारक-उपपद विभक्तीनां प्रयोगाः 16
आयुक्ता शकटे गौः- इसमें तत्परता नहीं है अतः केवल सप्तमी होगी।

4. (साधुनिपुणाभ्यामर्चायां सप्तम्यप्रतः, 2.3.43) – पूजा अर्थात् आदर के अर्थ में साधु और निपुण शब्दों के साथ सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है। ‘प्रति’ का प्रयोग होने पर सप्तमी नहीं होगी। जैसे –
श्रवणकुमारः मातरि साधुः आसीत्। (श्रवणकुमार माता के प्रति अच्छा व्यवहार करता था।)
सुशीलः पितरि निपुणोऽस्ति। (सुशील पिता की सेवा करने में निपुण है।)

5. इनके अतिरिक्त कुछ विशेष प्रयोग हैं, जहाँ सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(क) स्नेह, आदर, अनुराग शब्दों के तथा इनके समानार्थक अन्य शब्दों के साथ और √ स्निह्, √ अभिलष् धातुओं
के कर्म में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है। जैसे –
एषु वृक्षेषु मम सहोदरस्नेहोऽस्ति (इन वृक्षों पर मेरा सगे भाई का सा स्नेह है)। यहाँ स्नेह के साथ होने के कारण वृक्षेषु में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग है।
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मिश्रित-अभ्यासः

1. कोष्ठक में दिए गए शब्दों के उचित प्रयोग द्वारा रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए –
(क) 1. …………… विना कुतो विद्या? (ज्ञान)
2. नृपः ……….. धनं यच्छति। (निर्धन)
3. बालाः पुस्तकम् ………..। (पट)
उत्तर:
1. ज्ञानम्/ज्ञानेन/ज्ञानात्
2. निर्धनाय
3. पठन्ति

(ख) 1. ………. उभयतः वृक्षाः सन्ति। (नदी)
2. सीता ………. साकम् आगच्छत्। (राम)
3. ………….. नमः। (ईश्वर)
उत्तर:
1. नदीम्
2. रामेण
3. ईश्वराय

(ग) 1. सः …………… विश्वसिति। (अस्मद्)
2. सः ………… गणितम् अधीते। (अध्यापक)
3. नरः …………. बिभेति। (सिंह)
उत्तर:
1. मयि
2. अध्यापकात्
3. सिंहात्

(घ) 1. माता ………… कुप्यति। (पुत्र)
2. अलम् ………… (कोलाहल)
3. सः ………… प्रति गच्छति। (ग्राम)
उत्तर:
1. पुत्राय
2. कोलाहलेन
3. ग्रामम्

(ङ) 1. ……… निकषा नदी वहति। (ग्राम)
2. पुत्रः ……….. सार्धं गच्छति। (पितृ)
3. सा ……….. स्पृह्यति। (पुष्प)
उत्तर:
1. ग्रामम्
2. पित्रा
3. पुष्पेभ्यः

(च) 1. ……… दुग्धम् रोचते। (शिशु)
2. नदी ………… प्रभवति। (पर्वत)
3. छात्रः ………….. प्रवीणः। (व्याकरण)
उत्तर:
1. शिशवे
2. पर्वतात्
3. व्याकरणे

(छ) 1. …………… समया विद्यालयः अस्ति। (मन्दिर)
2. पिता ……….. क्रुध्यति। (पुत्र)
3. ……….. बहिः उद्यानम् अस्ति। (नगर)

(ज) 1. सः बालम् …….. रक्षति। (सिंह)
2. ………. ऋते न सिद्धिः। (श्रम)
3. …………. परितः क्षेत्राणि सन्ति। (ग्राम)

(झ) 1. ………… सर्वतः जलम् अस्ति। (नगरी)
2. छात्रः ………… समं गच्छति। (आचार्य)
3. कातरः ……….. त्रस्यति। (युद्ध)

(ञ) 1. वानरः ……….. अधिशेते। (शाखा)
2. अलम् ………… । (विवाद)
3. भक्तः ………. जुगुप्सते। (पाप)

(ट) 1. रामः मित्रम् …………. निवारयति। (पाप)
2. दाने सः …………… तुल्यः । (कुबेर)
3. पथिकः ………….. अधितिष्ठति। (धर्मशाला)

(ठ) 1. …………… अन्तरेण न सुखम्। (सनतोष)
2. …………. हीनः मानवः पशुः। (धर्म)
3. …………… नमः। (शिव)

2. कोष्ठकगत-शब्देषु समुचित-विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत –

1. ग्रामम् (ग्राम) अभितः वृक्षाः सन्ति।
2. ज्ञानम्/ज्ञानेन/ज्ञानात् (ज्ञान) विना जीवनं वृथा।
3. गुरवे (गुरु) नमः।
4. नगरात् (नगर) बहिः नदी वहति।
5. कविषु (कवि) कालिदासः श्रेष्ठः।
6. छात्रेषु (छात्र) विनोदः कुशलः अस्ति।
7. विद्यालयम् (विद्यालय) परितः आपणानि सन्ति।
8. इयं कक्षा, अलं कोलाहलेन (कोलाहल)।
9. कृष्णः कंसाय (कंस) अलम्।
10. बालः सात् (सर्प) बिभेति।
11. मम (अस्मद्) पुरतः कः तिष्ठति?
12. यः दुर्जने (दुर्जन) विश्वसिति सः मूर्खः।
13. धिक् …………… (ईश्वर निन्दक)।
14. ……….. (राम) सह सीता अपि वनम् अगच्छत्।
15. राजा ………. (दरिद्र) धनं यच्छति।
16. ………….. (स्वाध्याय) मा प्रमदः।
17. ……….. (युस्मद्) पृष्ठतः कः अस्ति?
18. यूयं …………. (विद्यालय) प्रति गच्छथ।
19. याचकः ……….. (नेत्र) काणः अस्ति।
20. ………… (तत्) किं रोचते?
21. रविवासरः ………… (शनिवासर) परः भवति।
22. ……….. (राम) वामतः कः आसीत्?
23. माता ……….. (पुत्र) स्निह्यति।
24. …………… (विद्या) विना नरः पशुः भवति।
25. ………….. (ज्ञान) हीनाः पशुभिः समानाः।

3. कोष्ठकात् समुचित-विभक्ति-पदं चित्वा रिक्तस्थानानि पूरयत

1. …………… विना कोऽपि न जीवति। (वायु, वायुः)
2. निरक्षरस्य ……………….. कि प्रयोजनम्? (जीवनाय, जीवितेन)
3. दुर्जन: ………….. असूयति। (सज्जनाय, सज्जनेन)
4. ………. अनन्तरं गुरुवासरः भवति। (बुधवासरात्, बुधवासरेण)
5. ……………..विश्वासं मा कुरु। (अविश्वस्तस्य, अविश्वस्ते)
6. ………………धिक्। (चौराय, चौरम्)
7. ……………… सह तत्र कः अगच्छत्? (त्वाम्, त्वया)
8. …………… नमः। (हनुमते, हनुमानाय)
9. ……………. बहिः मा गच्छ। (कक्षात्, कक्षेण)
10. ……………… रोहणः श्रेष्ठः अस्ति। (अस्मासु, अस्मभ्यम्)
11. ……………. समया नदी वहति। (ग्रामस्य, ग्रामम्)
12. अयं पुस्तकालयः, अलं …………….। (कोलाहलेन, कोलाहलस्य)
13. भीम ……….. अलम्। (दुर्योधनाय, दुर्योधनस्य)
14. …………… विना मुक्तिः नास्ति। (ज्ञानस्य, ज्ञानात्)
15. ………… पुरतः सिंहः आसीत्। (तस्य. तम्)
16. ……………. कः निपुणः? (अस्मासु, अस्मभ्यम्)
17. …………… पृष्ठतः कः आसीत्? (तव, त्वाम्)
18. रमा ………………”बिभेति। (सिंहेन, सिंहात्)
19. …………… हसनं रोचते। (तस्यै, तस्याः)
20. रामः …………. सह वनम् अगच्छत्? (कस्याः , कया)

4. अधोलिखितेभ्यः शुद्धं पदं चित्वा रिक्तस्थानानि पूरयत।

1. पश्य! पश्य! …………………………………….. परितः पुष्पाणि न सन्ति।
(क) विद्यालयः (ख) विद्यालयम् (ग) विद्यालयस्य (घ) विद्यालयेन

2. सज्जनाः …………… सह चलन्ति।
(क) सज्जनैः (ख) सज्जनान् (ग) सज्जनानाम् (घ) सज्जानत्

3. सः पाठनकाले …………………… बहिः गच्छति।
(क) कक्षायाः (ख) कक्षायाम् (ग) कक्षाम् (घ) कक्षायै

4. कक्षायाम् ………………….. परितः छात्राः अतिष्ठन्।
(क) गुरुणा (ख) गुरुम् (ग) गुरोः (घ) गुरौ

5. अस्याम् कक्षायाम् ……………………. रामः श्रेष्ठः वर्तते।
(क) छात्राणाम् (ख) छात्रेभ्यः (ग) छात्रान् (घ) छात्रैः

6. यज्ञे …………………… स्वाहा भवतु।
(क) इन्द्रम् (ख) इन्द्राय (ग) इन्द्रेण (घ) इन्द्रे

7. कार्यालये …………….. उभयत: तौ तिष्ठतः।
(क) त्वम् (ख) त्वाम् (ग) तव (घ) तुभ्यम्

8. सा ……………….. अनुरक्ता अस्ति ।
(क) पुष्पे (ख) पुष्पस्य (ग) पुष्पाय (घ) पुष्पात्

9. योगी कथयति ……………. किम्?
(क) धनात् (ख) धनेन (ग) धनाय (घ) धनस्य

10. उद्याने …………… अभितः खगाः तिष्ठन्ति।
(क) वृक्षम् (ख) वृक्षस्य (ग) वृक्षात् (घ) वृक्षण

11. भक्ताः कथयन्ति ………………….. स्वाहा।
(क) भगवतः (ख) भगवते (ग) भगवन्तम् (घ) भगवति

12. सा कन्या ……………. स्पहयति।
(क) पुष्पाणि (ख) पुष्पेभ्यः (ग) पुष्पाय (घ) पुष्पाणाम्

13. सः पुरुषः …………… बिभेति।
(क) शत्रोः (ख) शत्रुम् (ग) शत्रवे (घ) शत्रुणा

14. ……………… पूर्वम् उद्यानम् तिष्ठति।
(क) नगरस्य (ख) नगरात् (ग) नगराय (घ) नगरं

15. ……………. कालिदासः श्रेष्ठः वर्तते।
(क) कविभ्यः (ख) कवीनाम् (ग) कवयः (घ) कवीन्

16. ……………. पृष्ठतः कः?
(क) ग्रामम् (ख) ग्रामस्य (ग) ग्रामाय (घ) ग्रामात्

17. सः …………… कुशलः ।
(क) पठने (ख) पठनाय (ग) पठनेन (घ) पठनस्य

18. सम्प्रति ……………….. परितः के?
(क) मम (ख) माम् (ग) अहम् (घ) मह्यम्

19. …………….. स्पृह्यति।
(क) पठनाय (ख) पठनम् (ग) पठनेन (घ) पठनात्

20. …………………. बहिः उद्यानम् वर्तते।
(क) नगरस्य (ख) नगरात् (ग) नगरं (घ) नगराय

21. अधुना ………………. नृत्यम् रोचते।
(क) बालिकाम् (ख) बालिकायै (ग) बालिकायाम् (घ) बालिके

22. सः ………………. सह गच्छति।
(क) बालिकायाः (ख) बालिकया (ग) बालिकाय (घ) बालिकायै

23. बालिकाय सम्प्रति …………………. विना न सफलता।
(क) परिश्रमात् (ख) परिश्रमस्य (ग) परिश्रमे (घ) परिश्रमैः

24. ……………. उभयतः जलम् वहति।
(क) देशस्य (ख) देशम् (ग) देशेन (घ) देशाय

25. छात्राः कथयन्ति ……………. नमः ।
(क) अध्यापकम् (ख) अध्यापकाय (घ) अध्यापकस्य

26. अध्यापकः …………… पुस्तकम् ददाति।
(क) छात्राय (ख) छात्रम् (ग) छात्रेण (घ) छात्रात्

27. माता ……………….. क्रुध्यति।
(क) पुत्राय (ख) पुत्रम् (ग) पुत्रेण (घ) पुत्रस्य

28. …………………. अभितः वृक्षाः सन्ति।
(क) नगरस्य (ख) नगरम् (ग) नगरेण (घ) नगरे

29. बालकः ………………… बिभेति।
(क) सिंहात् (ख) सिंहस्य (ग) सिंहम् (घ) सिंहेन

30. छात्राः ……………… सह भ्रमणाय गच्छन्ति।
(क) गुरोः (ख) गुरुणा (ग) गुरुम् (घ) गुरवे

31. तस्मै ………………. पठनम् रोचते।
(क) छात्रायै (ख) छात्रस्य (ग) छात्रायाः (घ) छात्रायाम्

32. सीता ………………… सह वनम् अगच्छत्।
(क) रामस्य (ख) रामेण (ग) रामाय (घ) रामम्

33. सम्भवतः अद्य …………………. मोदकम् न रोचते।
(क) मम (ख) मह्यम् (ग) मत् (घ) माम्

34. सः ……………….. निपुणः वर्तते।
(क) कार्यस्य (ख) कार्ये (ग) कार्यात् (घ) कार्येण

35. व्यर्थेण …………………. किम्?
(क) जीवनेन (ख) जीवनस्य (ग) जीवनाय (घ) जीवनात्

36. अध्यापकः …………………. प्रवीणः अस्ति।
(क) पाठनस्य (ख) पाठने (ग) पाठनम् (घ) पाठनाय

37. अहं कथयामि-वरुण ………………. नमः।
(क) देवाय (ख) देवम् (ग) देवात् (घ) देवेन

38. राजा ………………… गाम् यच्छति।
(क) ब्राह्मणाय (ख) ब्राह्मणम् (ग) ब्राह्मणः (घ) ब्राह्मणात्

39. भिक्षुकः ………………. बहिः देवालयः अस्ति।
(क) देवालयात् (ख) देवालयम् (ग) देवालयाय (घ) देवालये

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